केवल इमारतें ही नहीं टूटीं...टूटी पूरी पीढ़ी की स्मृतियाँ, टूट गया शहर का एक ज़ायका

- काशी में पहलवान लस्सी की दुकान पर चला बुलडोजर, भावुक मालिक हाथ जोड़कर खड़ा रहा
- चाची की कचौड़ी सहित 30 दुकानों को प्रशासन ने किया जमींदोज
वाराणसी (रणभेरी): बनारस एक ऐसा शहर जो केवल ईंट, पत्थर या सड़कों से नहीं बना, बल्कि जिसकी आत्मा रची-बसी है उसकी संस्कृति, परंपराओं, गंगा के घाटों और उन गलियों में जिनमें सैकड़ों वर्षों का इतिहास सांस लेता है। यह शहर केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं, बल्कि एक भाव है, एक दर्शन है, जिसे देखने लोग देश-विदेश से आते हैं। उन्हें यहां टाइल्स, मार्बल और लैम्प लाइट नहीं चाहिए, बल्कि वो बनारस चाहिए जो समय की धूल में भी अपनी महक नहीं खोता। लेकिन अफसोस कि अब इस बनारस की आत्मा को धीरे-धीरे विकास के नाम पर कुचलने की होड़ सी लग गई है। विश्वनाथ कॉरिडोर बना, कोई बुराई नहीं, लेकिन उसकी चमचमाती दीवारों के पीछे जो बाबा विश्वनाथ की पुरानी बस्ती, वहां की संकरी गलियां, और उनका सजीव वातावरण था, वो सब कुछ जैसे पत्थरों के नीचे दब गया। अब वहां तस्वीरों में तो दर्शन होता है, लेकिन भावनाओं में वह अपनापन नहीं रहा।
ताज़ा घटना में मंगलवार की रात रविदास गेट के पास लंका की वह मशहूर "पहलवान लस्सी" और "चाची की कचौड़ी" की दुकानें बुलडोजर के नीचे आ गईं। यह कोई आम दुकानें नहीं थीं, बल्कि बनारस की सांस्कृतिक धरोहर थीं, जिनमें पीढ़ियों ने स्वाद के बहाने बनारस की आत्मा को चखा था। जब इन दुकानों को मिट्टी में मिलाया गया, तब केवल इमारतें नहीं टूटीं, बल्कि एक पूरी पीढ़ी की स्मृतियाँ, एक शहर का ज़ायका और उसकी पहचान का एक सिरा टूट गया।
विकास होना चाहिए, इसमें कोई संदेह नहीं है। बनारस में यातायात सुधरे, साफ़-सफाई बढ़े, आधारभूत ढांचा मजबूत हो ये सब ज़रूरी हैं। लेकिन यह विकास तब तक अधूरा है जब तक वह बनारस की आत्मा को साथ लेकर न चले। अगर यही रफ्तार रही तो वह दिन दूर नहीं जब सारनाथ जैसे ऐतिहासिक स्थल भी ‘कॉरिडोर’ के नाम पर संगमरमर और टाइल्स के नीचे दबा दिए जाएंगे।
सोचिए, अगर बुद्ध के धम्मचक्र की जगह सीमेंट की मूर्तियाँ और एलईडी लाइटों से सजे स्तूप खड़े हो जाएं, तो क्या बचेगा उस मूल चेतना का जो सदियों से जीवित है। बनारस की गलियों में जो अल्हड़पन है, वहां के चाय ठेले, लकड़ी की पुरानी अलमारियाँ, चौक की भीड़, कबीर और तुलसी की गूंज इन सबमें ही तो बनारस बसता है। इन्हें बचाना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है। सरकार से गुज़ारिश बस इतनी है कि विकास की गाड़ी ज़रूर दौड़े, पर वो गाड़ी बनारस की विरासत को रौंदकर नहीं, उसे साथ लेकर आगे बढ़े। बनारस अगर दुनिया के लिए विशेष है, तो वो उसकी परंपरा और जीवनशैली के कारण है ना कि उसकी संगमरमर की दीवारों या चमचमाती लाइटों के कारण।
बुलडोजर पहुंचा तो भावुक हो गया दुकान मालिक
वाराणसी की मशहूर पहलवान लस्सी की 75 साल पुरानी दुकान मंगलवार देर रात ढहा दी गई। बुलडोजर पहुंचा तो दुकान के मालिक मनोज यादव भावुक हो उठे। वह दुकान के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए। थोड़ी देर तक मन ही मन प्रार्थना की, फिर जमीन को प्रणाम किया और दूर खड़े होकर टकटकी लगाए अपनी दुकान को टूटते देखते रहे। इसके अलावा, 103 साल पुरानी 'चाची की कचौड़ी' समेत कुल 35 दुकानें भी तोड़ी गईं हैं।
इसलिए तोड़ीं गईं दुकानें
वाराणसी के लहरतारा से भिखारीपुर तिराहा, लंका चौराहा होते हुए भेलूपुर विजया माल तक 9.512 किमी लंबी फोरलेन सड़क बनाई जा रही है, जिसकी लागत 241.80 करोड़ रुपए है। इस परियोजना की जद में लंका चौराहे के पास स्थित ये 35 दुकानें आ रही थीं। लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) ने नपाई करने के बाद मकानों और दुकानों पर लाल निशान लगाकर करीब एक महीने पहले ही नोटिस दे दिया था।
ये सभी दुकानें संकट मोचन मंदिर के महंत के परिवार की थीं, जिन्हें किराए पर दुकानदारों को दिया गया था। जिनकी दुकानें टूटी हैं, उन्हें प्रशासन की ओर से मुआवजा दिया जाएगा। दुकानदारों ने कहा- आगे हमारा रोजगार कैसा चलेगा, इसका पता नहीं है। आज के समय हर जगह दुकान 20 से 25 हजार रुपए किराए पर मिल रही है, लेकिन हम चाह कर भी इन दुकानों को टूटने से रोक नहीं पा रहे हैं।
पहलवान लस्सी...73 साल पुरानी दुकान... योगी-शाह भी थे दीवाने
काशी में एक कहावत थी, 'चाय पीए के होए त अस्सी, अ नाहीं त पहलवान के लस्सी'। हालांकि, अब पहलवान लस्सी की दुकान टूट चुकी है। अभी दूसरी जगह इन्होंने अपना ठिकाना नहीं बनाया। पहलवान लस्सी कुल्हड़ में दही, मलाई-रबड़ी के खास कॉम्बिनेशन से तैयार होती थी। इस स्वाद को चखने के लिए सिर्फ काशी के लोग ही नहीं, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान से लेकर दुनियाभर के लोग पहुंचते थे। ये खास जायका योगी आदित्यनाथ, अमित शाह, स्मृति ईरानी से लेकर अखिलेश यादव तक को पसंद रहा। पहलवान लस्सी की दुकान लंका चौराहे से थोड़ा-सा अस्सी की तरफ बढ़ने पर थी। दुकान 75 साल पुरानी थी। यहां 8 वैरायटी की लस्सी यहां मिलती थी, जिनके रेट 30 रुपए से शुरू होकर 180 रुपए थे।