काव्य रचना
हे तरुवर
हे तरुवर! गर तुम न होते
सांस कहां से लाते हम?
खट्टा मीठा और रसीला
स्वाद कहां से पाते हम ?
लाल गुलाबी नीले पीले
खुशबू वाले फूल न होते
कलरव करते खगवृंद कहां
हरियाली और शूल न होते
कैसे चलती यह जीवनधारा?
अमिय कहां से लाते हम। हे तरुवर।।
निज स्वासों से निकली हवा से
चारों ओर जहर हम भरते,
ऑक्सीजन के बिन धरा पर
जीव सभी प्रतिपल मरते,
भला क्या होती उमर हमारी?
शतायु कहां बन पाते हम। हे तरुवर।।
न होते जंगल और ये अंचल
कहां से आती निर्मल सरिता
कलकल छलछल का मधुर निनाद
कैसे गाती अपनी धरिता?
तेरे बिन श्मशान सी दुनियां
गुलिस्तान किसे बनाते हम। हे तरुवर।।
जयप्रकाश "जय बाबू"