रस्मी आयोजनों तक सिमट कर रह गई भारतेंदु की हिंदी

रस्मी आयोजनों तक सिमट कर रह गई भारतेंदु की हिंदी

वाराणसी (रणभेरी सं.)। हम जिस देश में रहते हैं, उस देश की पहचान हमारी राष्ट्र भाषा हिंदी से है। इन कुछ सालों में जो हिंदी भाषा को बढ़ावा देने की आंधी चली, तो उसने लोगों के मन में एक बार फिर से हिंदी के प्रति रुचि बढ़ा दी है। हिंदी भाषा हमारे देश की आधिकारिक भाषाओं में से एक है। वर्तमान समय में दुनियाभर में अंग्रेजी एवं मंदारिन भाषा के बाद हिंदी तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। विश्व भर में लगभग 60 करोड़ लोग इस भाषा का इस्तेमाल अपनी बोल-चाल की भाषा के रूप में करते हैं। हिंदी भाषा के महत्व को देखते हुए हमारे देश में प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। धीरे-धीरे हिन्दीभाषा का प्रचलन बढ़ा और इस भाषा ने राष्ट्रभाषा का रूप ले लिया। अब हमारी राष्ट्रभाषा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बहुत पसंद की जाती है। इसका एक कारण यह है कि हमारी भाषा हमारे देश की संस्कृति और संस्कारों का प्रतिबिंब है। आज विश्व के कोने-कोने से विद्यार्थी हमारी भाषा और संस्कृति को जानने के लिए हमारे देश का रुख कर रहे हैं। एक हिंदुस्तानी को कम से कम अपनी भाषा यानी हिन्दी तो आनी ही चाहिए, साथ ही हमें हिन्दी का सम्मान भी करना सीखना होगा।

आधुनिकता के दौर में पिछड़ रही हिंदी

 आजकल अंग्रेजी बाजार के चलते दुनियाभर में हिंदी जानने और बोलने वाले को अनपढ़ या एक गंवार के रूप में देखा जाता है या यह कह सकते हैं कि हिन्दी बोलने वालों को लोग तुच्छ नजरिए से देखते हैं। यह कतई सही नहीं है। हम हमारे ही देश में अंग्रेजी के गुलाम बन बैठे हैं और हम ही अपनी हिन्दी भाषा को वह मान-सम्मान नहीं दे पा रहे हैं, जो भारत और देश की भाषा के प्रति हर देशवासियों के नजर में होना चाहिए। हम या आप जब भी किसी बड़े होटल या बिजनेस क्लास के लोगों के बीच खड़े होकर गर्व से अपनी मातृभाषा का प्रयोग कर रहे होते हैं तो उनके दिमाग में आपकी छवि एक गंवार की बनती है। घर पर बच्चा अतिथियों को अंग्रेजी में कविता आदि सुना दे तो माता-पिता गर्व महसूस करने लगते हैं। इन्हीं कारणों से लोग हिन्दी बोलने से घबराते हैं।

हिंदी साहित्य को अमर कर गए 'भारतेंदु हरिश्चंद्र'

हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाने वाले भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र ने हिंदी को मातृभाषा से ऊपर उठाते हुए आम बोलचाल की भाषा के साथ सरकारी कार्यों में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा के लिए लंबी लड़ाई लड़ी। हालांकि आज भी उनका यह सपना पूरा नहीं हो सका है। भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र का जन्म 9 सितंबर 1850 में वाराणसी के चौखम्भा इलाके में हुआ था। इस भवन को आज भी भारतेंदु भवन के नाम से जाना जाता है। घर के अंदर प्रवेश करने के साथ ही कुछ हिंदी साहित्य की खुशबू महसूस होने लगेगी, जिसके लिए भारतेंदु हरिश्चंद्र को आज भी जाना जाता है। यूं तो भारतेंदु बाबू ने नाटक लिखने की शुरूआत बंगला के विद्या सुंदर से की थी, लेकिन 1867 में लिखे गए इस नाटक से पहले उन्होंने नियमित रूप से खड़ी बोली में अनेक नाटक लिखकर हिंदी नाटक की नीव को शुद्ध रन बनाया। हरिश्चंद्र चंद्रिका, कवि वचन सुधा, बालबोधिनी पत्रिकाओं का सफल संपादन करने के साथ ही भारतेंदु बाबू उत्कृष्ट कवि, व्यंग्यकार, सफल नाटककार, जागरूक पत्रकार और कुशल वक्ता भी थे। मात्र 34 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने हिंदी साहित्य के विशाल संग्रह की रचना कर डाली। उनकी लेखनी और उनकी इस ओजस्वी प्रतिभा की गमक आज भी उनके इस पुराने मकान में देखने को मिलती है। वह बैठका आज भी मौजूद है, जहां भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र बैठा करते थे। उनके इस बैठके में आज उनकी तस्वीरों के साथ उनके पिता, उनके दादा-परदादा और कई पीढ़ियों की तस्वीरें मौजूद है। मकान को संजोकर बड़े ही शानदार तरीके से रखा गया है। सबसे चौकाने वाली बात तो यह है कि बिना किसी सरकारी मदद के आज भी भारतेंदु हरिश्चंद्र की पांचवी पीढ़ी इसी मकान में रहती है और उनकी स्मृतियों को संजोकर रखा हुआ है।

अंग्रेजी हावी हो गई, हिंदी 14 सितंबर तक सीमित

तब से तो कागजी तौर पर तो हिंदी राजभाषा बनी रही, लेकिन फली-फूली और समृद्ध होती गई अंग्रेजी भाषा। धीरे-धीरे देश की सरकारी मशीनरी ने हिंदी पर अंग्रेजी को तरजीह देते हुए उसी का चोला ओढ़ लिया। इसके बाद, अंग्रेजी भाषा की सरकारी व्यवस्था आधिकारिक तौर पर पकड़ और मजबूत होती गई और पूरे सिस्टम पर हावी हो गई। जब 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया और इससे संबंधित महत्वपूर्ण प्रावधान संविधान के भाग-17 में किए गए। इसी ऐतिहासिक महत्व के कारण राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा प्रत्येक वर्ष 14 सितंबर को 1953 से हह्यहिंदी दिवसह का आयोजन किया जाता है। इस दिन हिंदी के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा देने के लिए आयोजन किए जाते हैं।

स्वाधीनता की एक निशानी भी है हिंदी 

14 सितंबर को पूरा देश हिंदी दिवस के रूप में मनाता है। यह दिन हिंदी भाषा की महत्वता और उसकी नितांत आवश्यकता को याद दिलाता है। सन 1949 में 14 सितंबर के दिन ही हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिला था जिसके बाद से अब तक हर साल यह दिन 'हिंदी दिवस' के तौर पर मनाया जाता है। इस दिन को महत्व के साथ याद करना इसलिए जरूरी है, क्योंकि अंग्रेजों से आजाद होने के बाद यह देशवासियों की स्वाधीनता की एक निशानी भी है। जिस देश के संविधान ने देवनागरी लिपि यानी हिंदी को तरजीह देते हुए आधिकारिक राजभाषा का दर्जा देकर उसका उत्थान किया। हिंदी को एक सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए वह एक क्रांतिकारी कदम था, लेकिन फिर भी देश में अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ता गया। 15 अगस्त, 1947 के दिन जब देश गुलामी की जंजीरों से आजाद हुआ था, तब इस देश में कई भाषाएं और सैकड़ों बोलियां बोलीं जाती थीं। इनमें हिंदी सबसे प्रमुख और ज्यादा बोली जाने वाली भाषा थी। आज के दौर में विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है और अपने आप में एक समर्थ भाषा है। इंटरनेट सर्च से लेकर विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर हिंदी का दबदबा बढ़ा है। 2001 की जनगणना के अनुसार, लगभग 25.79 करोड़ भारतीय अपनी मातृभाषा के रूप में हिंदी का उपयोग करते। हैं, जबकि लगभग 42.20 करोड़ लोग इसकी 50 से अधिक बोलियों में से। एक का उपयोग करते हैं। हिंदी की प्रमुख बोलियों में अवधी, भोजपुरी, ब्रजभाषा, छत्तीसगढ़ी, गढ़वाली, हरियाणवी, कुमाउनी, मगधी और मारवाड़ी भाषाएं शामिल हैं।

काशी का आधुनिक हिंदी कलेवर दिलाने में रहा अहम योगदान

14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से निर्णय लिया कि हिंदी ही भारत की राजभाषा होगी। साल 1953 में पहली बार 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया गया था। इस दिन को मनाने में वाराणसी का अहम योगदान रहा हैं। 19वीं सदी से भारत में हिंदी को ग्लोबल भाषा बनाने का काम काशी से हुआ। यही नहीं,1920 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय हिंदी से पीजी शुरू करने वाला देश का पहला विश्वविद्यालय भी बन गया। बीएचयू के प्रोफेसर बताते हैं कि हिन्दी को आधुनिक रूप देने में तीन दशक लग गया। कठिन हिंदी को बोलचाल वाले साहित्य में बदलने का काम वाराणसी के कई विद्वानों ने किया। आज भी हिंदी उसी स्वरूप में है। बताया जाता है कि काशी के प्रमुख आधुनिक हिंदी के जन्मदाताओं में भारतेंदु हरिश्चंद्र, मुंशी प्रेमचंद,जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी, नामवर सिंह का नाम आता हैं। आधुनिक हिंदी के जन्मदाताओं में रामचंद्र शुक्ल का नाम भी आता हैं। बीएचयू के प्रोफेसर बताते हैं कि सन1905 में उन्होंने काशी नागरी प्रचारिणी सभा में 'हिंदी शब्द सागर' का निर्माण किया। काशी के लोगों द्वारा आम बोलचाल के शब्दों को इकट्ठा कर विशाल शब्दकोश (शब्द सागर) तैयार किया। पंडित मदन मोहन मालवीय ने उनकी यह प्रतिभा देख 1919 में ही काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी का प्रोफेसर बना दिया। साहित्यकार बाबू श्याम सुंदरदास के बाद हिंदी के दूसरे विभागाध्यक्ष उन्हें बनाया जा रहा था तो इस पर दूसरे प्रोफेसरों ने विरोध स्वरूप उनके ही एक शिष्य डॉ. पीतांबर का नाम आगे कर दिया। कहा कि शुक्ल पीएचडी नहीं हैं। इस पर मालवीय जी ने कहा कि पीतांबर इज डॉक्टर बट मिस्टर शुक्ल इज डॉक्टर मेकर। अगले अध्यक्ष वही होंगे।

पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बीएचयू में जीवंत की गुरु-शिष्य परंपरा

प्रोफेसर राणा ने बताया की बीएचयू के दूसरे सबसे विख्यात हिंदी के प्रोफेसर रहे पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी थे। वे आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शिष्य थे। उन्होंने शिष्य परंपरा को आगे बढ़ाया। हजारी प्रसाद ने बीएचयू में नामवर सिंह, ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त केदारनाथ सिंह, शिव प्रसाद सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी और काशीनाथ सिंह जैसे शिष्यों को पीएचडी कराई। उनके शोध निर्देशक बने। आगे चलकर ये शिष्य 21 वीं शताब्दी में हिंदी के सबसे बड़े पुरोधा बने। इन्होंने भी गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वहन किया। आचार्य द्विवेदी काशी हिंदू विश्वविद्यालय से पढ़ाई कर यहां पर प्रोफेसर भी बने।