वे जब याद आए बहुत याद आए...

वे जब याद आए बहुत याद आए...

वाराणसी (रणभेरी)। गंगा के आंचल पर नित नई रंगोलियां सजाने वाली काशी के प्रभाती के सौंदर्य का भला क्या कहना। अलबत्ता 27 अप्रैल से आंजनेय पीठ संकट मोचन के दरबार में नित्य सज रहे छह दिवसीय सांगीतिक महोत्सव के साथ ही सुंदरता की 'परिभाषाएं बदल गई है। सुरमयी सांझ, संगीत के श्रृंगार से मदमाती निशाओं व सद्य:स्नाता सी इठलाती अरुणिम बेला की रूप-राशि भी इंद्रसभा से कम रमणीय नहीं नजर आ रही। काशी के इस परंपरागत रस महोत्सव की जीवंत प्रस्तुतियां आशाओं के नए दीप जला रही है। काशी के रसिकजनों को सुर-लय-ताल की त्रिवेणी में अवगाहन करा रही है। अंतर बस इतना आया है कि सब कुछ जैसा होता आया है, वैसा ही होने के बाद भी संगीतानुरागियों के दृष्टिपथ से कुछ जाने-पहचाने चेहरे इस बार ओझल नजर आ रहे है। निगाहे इधर-उधर ढूंढ़ रही है पर अनंत यात्रा पर निकल जाने वाले पथिकों की छवियां अब सिर्फ स्मृतियों के झरोखों तक ही आ पा रही है। निश्चित ही काशी के सुधीजनों को बहुत टीस रहा है कथक सम्राट पं. बिरजू महाराज, अप्रतिम सुर साधक पं. जसराज व पं. राजन मिश्र, सितार के पर्याय पं. देबू चौधरी व कोरोना से जूझ रहे पिता की सेवा के दौरान निठुर महामारी के क्रूर पंजों में दम तोड़ गए युवा सितार वादक प्रतीक चौधरी का आकाशगंगा में यूं खो जाना यकीनन हनुमत दरबार का हर कोना इन महारथियों का न होना महसूस रहा है।
किशोरवय में पं. राजन मिश्र ने लगाई थी पहली हाजिरी 
पं. राजन मिश्र ने सन 1968 में जब अनुज पं. साजन मिश्र के साथ मंच को पहली बार प्रणाम किया तो वह इन मिश्र बंधुओं की किशोरवयस थी। कला प्रस्तुति की यह धारा कुलपुरुष पं. हनुमान प्रसाद मिश्र (पिता), पं. गोपाल मिश्र (चाचा) के सारंगी वांदन से शुरू होकर आज रजनीश-रीतेश (पं. राजन मिश्र के पुत्र) व स्वरांश (पं. साजन मिश्र के पुत्र) तक अब तक निरंतर प्रवाहमान है।
हमेशा ही पूरे साल आमंत्रण की प्रतीक्षा में रहा करते थे हनुमत चरणों के किंकर पं.जसराज 
 भोर की अंतिम बेला में मंच संभालने के पूर्व आधी रात से ही जोगिया रंग के सिल्क के लुंगी-कुरते में सजे मंदिर प्रांगण में उन्मुक्त विचरते पं. जसराज इस बार नहीं दिखाई दे रहे हैं। आत्मीय बतकहियों के जरिये बनारस के संगीतप्रेमियों से नाता कायम करते पंडित जी की वह सहज- सरल छवि कभी भूली जा सकती है क्या...? आयोजन से जुड़े डा. बीएन मिश्र बताते हैं- 'एकाध अपवादों की बात छोड़ दें तो बाबा संकट मोचन की देहरी पर मत्था टेकने को आतुर जसराजजी मानो महंतजी के आमंत्रण की प्रतीक्षा में बैठे रहते थे। देश-विदेश कहीं भी हों, उनका बैग बनारस की यात्रा के लिए जैसे पहले से ही बंधा रहता था।

प्रभु को रिझाते रहे पं. बिरजू महाराज 
 पं. बिरजू महाराज ने भी कई दशकों तक हनुमत दरबार में हाजिरी लगाई। आंजनेय प्रभु की कृपा से यश-कार्ति की नई उंचाईयां पाई। वार्द्धक्य के बाद भी हनुमत दरबार से उनका नाता कभी न टूटा। पद संचलन में शैथिल्य आया तो भी केवल भाव मुद्राओं से प्रभु को रिझाते रहे। अपने उत्तराधिकारी दीपक महाराज के लिए काशीवासियों से शुभकामनाएं पाते रहे। दिवंगत सितार साधक देबू चौधरी की प्रस्तुतियों को याद करते हुए डा. मिश्र भावुक हो जाते हैं। याद करते हैं उन बीते दिनों को जब बाबा दरबार के मंच को देबू दा के साथ ही बुद्धादित्य मुखर्जी और कार्तिक कुमार ने एक ही महोत्सव में सितार की झंकार से दरबार को गुंजा दिया था। पं किशन महाराज, पं. सामता प्रसाद मिश्र गोदई महाराज, लच्छू महाराज जैसे संगतकारों के साथ हुई ये युगलबंदियां समारोह के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हैं।