काव्य-रचना
जब चाँद हमारे अपने थे..
वो कैसे सुंदर सपने थे,
जब चांद हमारे अपने थे,
वो तब भी हमसे दूर थे,
पर वो सपनों में नूर थे,
जब फुर्सत के पल पाते थे,
हम झट छत पर चढ़ जाते थे,
हम उनको देखा करते थे,
पुरी रात उन्हीं में रहते थे,
वो सपनों में टकराते थे,
और हम वहीं सो जाते थे,
उनको पाने की आशा थी,
वो जीवन की प्रत्याशा थी,
वो शब्द नहीं एक भाषा थी,
उस भाषा की परिभाषा थी,
उस चाँद की दूरी ज्यादे थी,
पर अपनी वो फरियादें थी,
उसको भी मुझसे खता नहीं,
वो खत थी पर वो पता नहीं,
फिर ऐसा भी दिन आया था,
सहसा वो चाँद पराया था,
वह रात बहुत ही काली थी,
मुझसे कुछ कहने वाली थी,
मै मौन खड़ा था आंधी में,
वो मस्त पड़ी थी वादी में,
अब चाँद नहीं हमारा था,
फिर भी वो मुझको प्यारा था,
अब भी मै छत पर जाता हुँ,
अपनी चाँद वहीं मैं पाता हुँ,
पर क्या कहना अब रातों से,
फर्क भला क्या बातों से,
केवल यह एक कहानी है,
जो इस दिल में रहने वाली है,
वो जहां रहे बस चाँद रहें,
वो दुनियाँ का ताज़ रहें,
बस यही हमारा सपना था,
वो चाँद कभी मेरा अपना था
-प्रवीण वशिष्ठ