काव्य रचना
"माँ "
एक पुत्र के आँखों को पढ़ा मैंने
माँ का जाना क्या होता है ,
उसके कहे बिना जाना मैंने
डबडबा चुकी थी आँखें ,
होंठ कपकपा रही थी ,
जैसे कह रही हो "माँ" क्यों
कुछ कहे बिना चली गयी छोड़ मुझे
अकेला पड़ गया हूँ किसी से कह नहीं सकता
मन के ख़ुशी-तकलीफ को बेझिझक किसी
से बयां कर नहीं सकता
जब भी घर में हूँ प्रवेश में करता, माँ शब्द
बार-बार चिल्ला नहीं सकता
संस्कार-सभ्यता और अपनेपन का पाठ
गर्भ में रख जो सिखाया 'माँ' तुमने
उसमें कभी गलतियां होने पर कोई
'माँ ' तुम जैसे सीखा नहीं सकता
टूट गया हूँ बिखर सा गया हूँ ,
हंसने का जब मन है करता 'माँ ' तुम्हारी
तस्वीर देख रोने लगता हूँ
माँ तुम जहाँ भी हो ,
बस ख्याल रखना अपना
कभी कभी स्वप्न में आ सिर पर
हाथ रख जाना और जैसे कहती थी माँ तुम पहले
वैसे बेटा कह प्यार कर जाना
एक पुत्र के आँखों को पढ़ा मैंने
जैसे वो बिन शब्दों का विलाप कर रहा हो जैसे ||
नवीन आशा