काव्य रचना
बरसो रे बदरा म्हारे गाँव
बरसो रे बदरा म्हारे गाँव
अब तो करो कुछ कल्याण
घूँट रहा जन-जन का प्राण
धूल धूसरित भूमि
प्यासी कब से पानी को
राह देखता कृषक रात-दिन
भूला अपनी जवानी को
करके जुगाड़ खाद पानी का
बैठा है कब से
अब तो आएंगे काले मेघ
उमड़-घुमड़ कर बरसेंगे खूब
छायेगी हरियाली चहुँओर
लगेगें खेतों में जब धान
सूख रही खेतों में नर्सरी
फ़टी एड़ियों जैसे खेत
बिन पानी सब सून है
पेड़ पौधे और धान के बीज
नृप भी मस्त है
सत्ता के गलियारों में
मची है खूब धमा चौकड़ी
एक दूजे को गिराने में
न सिंचाई न खाद न बीज
की चिंता
बची रहे कुर्सी की इज्जत
उन्हें तो बस कुर्सी की चिंता
अब तो कुछ करो न्याय
बरसो रे बदरा म्हारे गाँव
बरसो रे........!
मनोज कौशल