सरायपोही की जर्जर सड़क को लेकर ग्रामीणों का आक्रोश, लगाए ‘रोड नहीं तो वोट नहीं’ के बैनर
सांसद–विधायक का गांव में प्रवेश सख्त वर्जित, सड़क निर्माण की मांग ने पकड़ा आंदोलन का रूप
आजमगढ़ (रणभेरी): निजामाबाद तहसील के सरायपोही गांव में आज सड़क नहीं, एक अंतहीन पीड़ा फैली हुई है। वर्षों से जर्जर पड़ी यह सड़क अब सिर्फ ईंट–पत्थर और गड्ढों का ढेर नहीं रही, बल्कि गांव के हर घर की चिंता, हर मां की दुआ और हर बच्चे के सपने की राह में खड़ा एक दर्दनाक सवाल बन चुकी है। यहां चलना मुश्किल नहीं, बल्कि जीना कठिन हो गया है। हर कदम पर डर है कभी फिसलने का, कभी गिरने का, कभी किसी अपने को समय पर अस्पताल न पहुंचा पाने का।
बरसात के दिनों में यही सड़क तालाब में बदल जाती है। कीचड़ और पानी के बीच से गुजरते स्कूली बच्चे रोज़ अपनी किताबें और जूते बचाने की जंग लड़ते हैं। कई बार बच्चे गिर पड़ते हैं, कपड़े गंदे होते हैं और आंखों में आंसू लिए वे स्कूल पहुंचते हैं। बुजुर्गों के लिए यह रास्ता किसी परीक्षा से कम नहीं। लाठी के सहारे चलने वाले बूढ़े कदम–कदम पर ठहर जाते हैं और मन ही मन कहते हैं “कब बनेगी हमारी सड़क?”
सबसे भयावह हालात तब होते हैं, जब गांव में कोई बीमार पड़ जाता है। एंबुलेंस अक्सर गांव तक पहुंच ही नहीं पाती। गर्भवती महिलाओं को खाट या मोटरसाइकिल पर कीचड़ भरे रास्तों से ले जाना पड़ता है। कई बार दर्द से कराहती महिला, गड्ढों में उछलती सवारी और आंखों में बस एक ही डर-कहीं देर न हो जाए। यह सड़क कई परिवारों के लिए डर की स्मृति बन चुकी है।
किसानों के लिए यह रास्ता उनकी मेहनत का दुश्मन है। फसल खेत से निकलती है, लेकिन बाजार तक पहुंचते-पहुंचते टूट जाती है। ट्रैक्टर और ठेले गड्ढों में फंस जाते हैं, लागत बढ़ती है और मुनाफा घटता जाता है। किसान पूछता है—“क्या हम सिर्फ वोट देने के लिए ही याद किए जाते हैं?”

इसी टूटे भरोसे और वर्षों की उपेक्षा ने अब गांव वालों को चुप रहने नहीं दिया। सरायपोही के ग्रामीणों ने गांव में बैनर लगाकर साफ कर दिया है “रोड नहीं तो वोट नहीं।” यह नारा किसी राजनीतिक दल के खिलाफ नहीं, बल्कि उस व्यवस्था के खिलाफ है जिसने गांव को हाशिये पर छोड़ दिया। “सांसद–विधायक का गांव में प्रवेश सख्त वर्जित” जैसे शब्द ग्रामीणों के आक्रोश की पराकाष्ठा हैं। यह फैसला गुस्से में नहीं, बल्कि थकान और बेबसी में लिया गया है।
सोशलिस्ट किसान सभा के महासचिव राजीव यादव ने ग्रामीणों की इस आवाज़ का समर्थन करते हुए कहा कि यह आंदोलन अब सिर्फ एक गांव की मांग नहीं रहा। यह उस पीड़ा की अभिव्यक्ति है, जो लाहीडीह, शेरपुर और अब सरायपोही में फूट पड़ी है। उन्होंने कहा कि जब जनता को अपने हक के लिए बैनर उठाने पड़ें, तो यह लोकतंत्र के लिए गंभीर संकेत है।
सरायपोही की सड़क आज सरकार से नहीं, समाज से सवाल पूछ रही है। सवाल यह नहीं है कि सड़क कब बनेगी, सवाल यह है कि क्या गांव की पीड़ा अब भी सुनी जाएगी? यहां के लोग विकास की भीख नहीं मांग रहे, वे सिर्फ इतना चाहते हैं कि उनके बच्चों का भविष्य कीचड़ में न फिसले, उनकी मांएं अस्पताल पहुंचने से पहले रास्ते में न हारें और उनका गांव भी इस देश के नक्शे पर सम्मान के साथ चल सके।
सरायपोही की जर्जर सड़क दरअसल एक गांव की कहानी नहीं, बल्कि उन अनगिनत गांवों की आवाज़ है, जहां रास्ते टूटे हैं और साथ ही भरोसा भी। अब देखना यह है कि यह आवाज़ सिर्फ दीवारों पर टंगे बैनरों तक सीमित रह जाती है या सत्ता के गलियारों तक पहुंच पाती है।











