सब्जी बेचने वालों ने मन बनाया, व्यवस्था परिवर्तन का बीड़ा उठाया
- सब्जबाग दिखाने वालों के झांसे में नहीं आएंगे, जो रोजी-रोटी की खबर ले उसी को विधायक बनाएंगे
- जो कंधे से कंधा जोड़कर खड़े रहने का पक्का वायदा करे उसी की भरेंगे झोली
वाराणसी (रणभेरी)। वर्षो से चला आ रहा है यही सिलसिला। पांच साल की गुमशुदगी के बाद गाड़ियों के काफिले के साथ खद्दर धारी कुछ जाने-पहचाने चेहरे दरवाजा खटखटाते हैं। विनयावनत मुद्रा में पीछे जाते बड़ी वाक्पटुता के साथ बेहतर जिंदगी के सब्जबाग दिखाते हैं। गद्दी की खातिर लगाते हैं वोट की गुहार और चुनाव का नतीजा आते के साथ ही प्रवासी पक्षियों की तरह अगले पांच वर्षों के लिए अंतर्ध्यान हो जाते है। फिर कभी कभार उनकी झलक मिलती भी है तो हूटर बजाती गाड़ियों की खिड़कियों के पीछे गद्देदार सीटों पर अकड़ कर बैठे इन सौदागरों की कौंधती झांकी से, या फिर उद्घाटन-समापन के फीते काटते इनकी अदा बांकी से।
इस आशय के उभरते छोभ से सामना हुआ आज शहर की पटरियों पर या रहड़ो पर सब्जी बेचने वाले दुकानदारों से चुनावी चर्चा के दौरान। अस्सी इलाके के फुटपाथ पर सब्जियों की रेहड़ लगाए बैठे माता प्रसाद से। उनका कहना है कि जितनी हरी भरी उनकी सब्जियों की रंगत है, उतनी हरयाली उनकी जिंदगी में नहीं है। चुनाव आते रहे जाते रहे, सरकारें बनती-बिगड़ती रही, किंतु उनके जीवन में कोई फर्क नहीं आया। फिर वह चाहे शिक्षा के क्षेत्र में उनके बच्चों की भागीदारी का सवाल हो या फिर वक्त की रफ़्तार के साथ उनके कदमताल के मिलान का प्रश्न। माता प्रसाद का कहना है कि विकास के नाम पर सड़को के जीर्णोद्धार या फिर विश्वनाथ कॉरिडोर के विस्तार की बात अपनी जगह है, किंतु इससे गरीबों के चूल्हे की आंच पर कोई फर्क नहीं पड़ता। कमरतोड़ महंगी अफसरशाही के तुगलकी फरमानों की मार तथा ऊपर से पुलिसिया रोब-दाब के निर्मम प्रहार से रोजगार की बरक्कत मारी जाती है। आधी रात के बाद से ही मंडी की हाजरी से शुरू होकर देर रात की खटनी के बराबर की उजरत तमाम कोशिशों के बाद भी गाँठ तक नहीं पहुंच नहीं पाती है। दु:खद यह है कि सब्जी वालों की समस्याओं पर ध्यान देने या फिर उन्हें एक सुव्यवस्थित बाजार उपलब्ध कराने की पहल आज तक नहीं हुई। उनके प्रताड़ना पर भी लगाम लगाने की दिशा में कोई ठोस प्रयास आज तक नजर नहीं आया।
विशेश्वरगंज, दशाश्वमेध, चौखम्भा, सुंदरपुर, नाटी इमली, चंदुआ सट्टी, पहड़िया से लेकर केदारघाट की सब्जी मंडी तक पसरी दुर्व्यवस्थाएँ गवाह है की लोगों के भोजन की थाली सजाने वालों की खुद की जिंदगी कितनी अस्त व्यस्त और त्रस्त है। यहीं के सब्जी विक्रेता अशोक सोनकर माता प्रसाद की बात को ही आगे बढ़ाते हुए कहते है की कोई पंजीयन नहीं होने के कारण सब्जी वालों को कई तरह के शोषण झेलने पड़ते है। थाने चौकियों को सब्जी का चढ़ावा चढ़ाने के अलावा भी पचास तरह की रंगदारियां और भी अदा करनी पड़ती है।
फिर भी यह कोई निश्चिंतता नहीं की कौन कब डंडा भांजते आए और रेहड़ उलट पलट कर आगे बढ़ जाये। कभी घटतौली के नाम पर धन उगाही तो कभी प्लास्टिक के उपयोग के नाम पर त्राहित्राही। सब्जी विक्रेता कांता सोनकर कहते है-जात विरादरी, धर्म-कर्म के नाम पर वोट देते आधी जिंदगी गुजर गई। इस दफा हम मेहनत- कश खटिकों ने भी मन बनाया है कि इस दफा करेंगे तो एकतरफा मतदान करेंगे जो कंधे से कंधा जोड़कर खड़े रहने का पक्का वायदा करें उसी की झोली भरेंगे।