साबरमती के संत और काशी के लाल ने राष्ट्र को किया निहाल

साबरमती के संत और काशी के लाल ने राष्ट्र को किया निहाल

अपने कार्यों एवं विचारों से देश की स्वतंत्रता और आजाद भारत को दिया नया आकार

वाराणसी (रणभेरी सं.)। अंग्रेजी हुकूमत से भारत को आजादी दिलवाने वाले और 'राष्ट्रपिता' की उपाधि से सम्मानित महात्मा गांधी दुनियाभर में प्रसिद्ध हैं। सत्य और अहिंसा के पुजारी गांधी जी ने भारत को गुलामी को बेड़ियों से मुक्त करवाने में बड़ी भूमिका निभाई थी। उन्होंने पूरी दुनिया को सत्य, अहिंसा और शांति का पाठ पढ़ाया था। मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म गुजरात के पोरबंदर में 2 अक्टूबर 1869 को था। इसलिए हर साल 2 अक्टूबर को दुनियाभर में 'गांधी जयंती' मनाई जाती है। इस दिन को विश्व अहिंसा दिवस के रूप में भी सेलिब्रेट किया जाता है। महात्मा गांधी ने न केवल भारत के स्वाधीनता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी बल्कि उन्होंने साउथ अफ्रीका में भी नस्लीय भेदभाव को होकर अपनी आवाज बुलंद की थी

जब पारंपरिक पहनावे को छोड़ खाली बदन धोती पहनकर रहने का लिया प्रण !

नील की खेती के खिलाफ शुरू हुआ चम्पारण सत्याग्रह भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में चम्पारण के किसानों का दर्द सुनने के बाद महात्मा गांधी 11 अप्रैल, 1917 को मोतिहारी पहुंचे। उस वक्त उनके साथ डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भी थे। उस दौरान उन्होंने किसानों की पीड़ा के साथ गरीबी को भी उन्होंने नजदीकी से देखा। सामाजिक आंदोलन और फिर जन-जन के आंदोलन की शुरूआत से पहले महात्मा गांधी ने अपने पारम्परिक पहनावे को ही बदल दिया और उन्होंने खाली बदन सिर्फ धोती पहनकर रहने का प्रण ले लिया। इस फैसले के बाद गांधी ने किसानों को एकजुट किया, किसानों के मसीहा बने महात्मा गांधी ने लोगों के दिलों में बड़ी जगह बना ली और इसके बाद से मोहन दास को बापू के नाम से बुलाया जाने लगा। नील की खेती से परेशान किसानों को लेकर उन्होंने अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की और किसानों की एकजुटता देखने के बाद अंग्रेजी सता काफी घबरा गई और उन्हें चम्पारण छोड़ने का फैसला ले लिया। कोर्ट में पेश होने बाद बापू के हजारों समर्थक कोर्ट में महात्मा गांधी के जयकारे लगाने लगे और आखिरकार कोर्ट को विवश होकर महात्मा गांधी को रिहा करना पड़ा था।

महामना की बगिया में आना एक तीर्थ के समान मानते थे बापू 

महात्मा गांधी का बनारस से विशेष लगाव था। यही वजह है कि वह कई बार बनारस आए। सबसे पहले 1903 में, दूसरी बार 3 फरवरी 1916 बसंत पंचमी के दिन, तीसरी बार 20 फरवरी 1920 को वाराणसी आए। इसी बार 21 फरवरी 1920 को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रों को संबोधित किया। इसी दौरान उन्होंने 30 मई 1920 को हिंदू स्कूल में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में भाग लिया। अंतिम बार काशी हिंदू विश्वविद्यालय के रजत समारोह में 21 जनवरी 1942 को महात्मा गांधी शामिल हुए थे। महात्मा गांधी ने विश्वविद्यालय में समय बिताने के बाद मालवीय जी से कहा कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय में आना मेरे लिए एक तीर्थ के समान है। बताते चलें कि महात्मा गांधी और मालवीय जी एक दूसरे से पत्र के माध्यम से बात करते थे। अपने हर समस्या को एक दूसरे को उसी के मध्यम से पहुंचाते थे। उन्हों में से एक पत्र के माध्यम से यह उजागर हुआ कि वह महामना की इस बगिया को तीर्थ मानते थे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में महात्मा गांधी ने अपने वक्तव्य में स्वतंत्रता आंदोलन में राष्ट्रीय एकीकरण की बात रखी। सामाजिक एकता पर बल दिया। हिंदुओं के एकीकरण की बात की।

काशी के लाल ने विश्व पटल पर छोड़ी है अमिट छाप

 काशी के लाल और देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री आज भी सादगी की मिसाल हैं। जय जवान, जय किसान का नारा देने वाले शास्त्री ने प्रधानमंत्री के पद पर मात्र 18 माह के कार्यकाल में ही नैतिक राजनीति को स्थापित किया। संघर्षों से भरा उनका जीवन और उनकी रहस्यमय मृत्यु का राज आज तक भारतवासियों को झकझोरता है। रामनगर में स्थित शास्त्री जी का आवास काशी के लाल की सादगी और सार्वजनिक जीवन की कहानी कहता है। रामनगर स्थित पूर्व प्रधानमंत्री के आवास पर आने जाने वालों को लाल बहादुर शास्त्री का अक्स आंखों के सामने जरूर नजर आता है। रामनगर स्थित शास्त्री स्मृति भवन संग्रहालय के म्यूजियम में सबसे पहले प्रवेश करते ही उनसे जुड़ी तमाम यादों की फोटो गैलरी सजी हुई हैं। शास्त्री जी ने रामनगर से अपने जीवन की शुरूआत की। तमाम कठिनाईयों से जूझते हुए देश के प्रधानमंत्री तक का सफर तय किया। राजनीति में उनके द्वारा लिए गए साहसिक निर्णय आज भी लोगों के लिए मिसाल है। चाहे रेल दुर्घटना के बाद रेल मंत्री पद से इस्तीफा हो या 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध में उनका नेतृत्व या फिर उनका दिया जय जवान जय किसान का नारा। ताशकंद में 10 जनवरी 1966 को भारत और पाकिस्तान के बीच समझौते पर दस्तखत किए और उसके अगले ही दिन यानी 11 जनवरी 1966 को उनका निधन हो गया। शास्त्री जी उत्तर प्रदेश सरकार में पुलिस एवं यातायात मंत्री रहे। 1951 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव पद पर शास्त्री जी की नियुक्ति हुई। प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद राष्ट्र को नेतृत्व प्रदान करने का भार लाल बहादुर शास्त्री के कंधों पर गया। 2 जून 1964 को उन्हें कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुना गया। 9 जून 1964 को प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। 11 जनवरी 1966 को भारत मां का ये महान सपूत ताशकंद में अपनों से बिछड़ गया। अपने प्रिय नेता के निधन का समाचार सुनकर समूचा राष्ट्र स्तब्ध रह गया। भारत सरकार ने उन्हें देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न मरणोपरांत दिया।

पीएम रहते हुए कार खरीदने के लिए बैंक से लिया था लोन

प्रधानमंत्री रहते हुए लाल बहादुर शास्त्री अपने परिवार के कहने पर एक फिएट कार खरीदी। उस दौरान वह 12,000 रुपये में थी, लेकिन उनके बैंक खाते में केवल 7,000 रुपये थे। कार खरीदने के लिए उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक से 5,000 रुपये के बैंक लोन के लिए आवेदन किया था। उस कार को नई दिल्ली के शास्त्री मेमोरियल में रखा गया है।

जब वेतन लेना कर दिया था बंद

साल 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान देश में अनाज की कमी हो गई। देश को खाने की कमी की समस्या से गुजरना पड़ा था। उस दौरान लाल बहादुर शास्त्री ने अपनी तनख्वाह लेनी बंद कर दी थी।  उन्होंने देशवासियों से अपील की थी कि वो हफ्ते में एक दिन एक वक्त व्रत रखें। उनकी इस अपील को मानते हुए सोमवार शाम को भोजनालयों ने शटर बंद कर दिए। लोगों ने भी एक वक्त व्रत रखना शुरू कर दिया था।