काव्य- रचना

काव्य- रचना

   ’श्री के चरणों में ’    

टूट गयी वह मेरी राधेश्याम रूपी माला
जिसे गूंथा था पांच वर्षों पूर्व
अपनी स्मृत्तियों में विश्वास के सहारे
आस्था के मजबूत धागों से

जपता रहा प्रतिपल, प्रतिदिन
अबोध बालक की तरह
किंतु! आस्था के तमाम सोपानों से गुजरती
आखिरकार वह पहुंच ही गई 
अनास्था के अन्तिम पड़ाव तक

क्योंकि वहां थी जलील हरकतें
बनावटीपन,बड़बोलेपन व छलछ्द्म के कोरे आश्वासन मात्र
यह सब देख झुंझला उठा मेरा अन्तर्मन 
बार-बार असफ़ल होते
हृदय की पीड़ा से व्यथित
आख़िर निकल ही पड़ा
उस अलौकिक प्रकाश की खोज में
कृत संकल्पित हो
जो पहुंचा सके मुझे मेरे लक्ष्य तक
जिसके ताप में तप कर
मजबूत बन सके मेरी आत्मा !
जहाँ मिल सके मुझे तृप्ति 
सार्थक कर्मों के बीच चलते हुए 

अंततः एक छोटे प्रयास में ही
मिल चुका था मुझे
श्री का एक विराट तेज़
इस महामना की बगिया में
जिनकी छाया को पा
पुलकित हो उठा मेरा हृदय
जिनकी चमक से
दमक उठी मेरी प्रतिभा
क्योंकि अब मैं था श्री के चरणों में!


        मनकामना शुक्ल 'पथिक'