काव्य-रचना

काव्य-रचना

         लाडो बिटिया         

  पिता की लाडो दिल में धड़कन सी रहती है
बेटीयां फिर भी पिता से कुछ नहीं कहती है

बेटों की फरमाइश पूरी करते करते 
और बेटियों की फरमाइश के इंतजार में
हर बाप बूढ़ा हो जाता है कि एक दिन
बेटी भी कुछ मांगेंगी इस त्योहार में
मगर वह खामोश में ही बस रहती है
बेटीयां पिता से कुछ नहीं कहती है

एक टीस सी रह जाती है यूं देखते हुए
यह वही लाडो है बड़ी हो गई खेलते हुए
पर वह नहीं पलती बेटे के जैसे हक़ से
हर इच्छा को घोटती पराई खुद को समझते
शादी ब्याह और पढ़ाई सब एहसान समझती है
बेटीयां इसलिए पिता से कुछ नहीं कहती है

 बेटी को पराया कहकर हर रोज दुकारा जाता है
 बेटों की फरमाइश को हर दिन दुलारा जाता है
 यह भेद किसने बनाया और क्योंकर ये रिवाज है
 दो रंगा लहू है जिसका कैसा यह समाज है
 मन की कोमल बड़ी कड़ाई से हर गम सहती है
 बेटीयां फिर भी पिता से कुछ नहीं कहती है

हर जंग वह जीत लेगी थोड़ा सा अरमान दो
वह नियंता है जगत की उनको तुम सम्मान दो
मिट जायेंगे तेरे हर गम उनको तुम पहचान लो
बेटियों के हक की खातिर तुम एक परवाज लो
मौका मिलते ही वह सच साबित करती है
बेटियां फिर भी पिता से कुछ नहीं कहती है

जयप्रकाश "जय बाबू"