काव्य-रचना

काव्य-रचना

   काश कि बचपना होता!  

एक वह गोली थी
जो बचपन का
हिस्सा हुआ करती थी

एक यह गोली है
जो शासन की बंदूक से
निहत्थे को
छलनी कर देती है
कितना फर्क है
है ना बचपन और सयाने में
काश कि बचपना होता सयाने में!
कि जैसे खेल रहे थे गोली
गाँवों में!

एक कवि की अल्हड़ता है
बचपना,गांव,नगर,नागरी
की सरसता है
यह गाँव की कौड़ी है
दिल्ली की दंडी नहीं।

  विनय विश्वा