जेनेटिक बायोमार्कर से गॉलब्लैडर कैंसर की समय से मिलेगी जानकारी

वाराणसी (रणभेरी सं.)। आईएमएस बीएचयू के शोधकतार्ओं ने गॉलब्लैडर कैंसर (पित्ताशय कैंसर) के क्षेत्र में एक नए जेनेटिक बायोमार्कर की पहचान की है। इसके मदद से इस घातक रोग की जल्दी पहचान होने के साथ ही मरीजों का बेहतर उपचार हो सकेगा। इसको लेकर डॉ. रूही दीक्षित (जनरल सर्जरी विभाग), सर्जिकल आकोलॉजी विभाग के प्रो. मनोज पांडेय, बीएचयू के जाने माने सर्जन डॉ. विजय कुमार शुक्ला ने संयुक्त रूप से शोध किया।
इसमें Clariom™ D माइक्रोएरे तकनीक का उपयोग करके गॉलब्लैडर कैंसर, गॉलब्लैडर स्टोन (पथरी) और स्वस्थ ऊतकों की तुलना की गई। शोध में 10 मुख्य जीन (जैसे बीआरसीए 2 और आरएडी51बी) पाए गए। यह कैंसर बनने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। प्रो. मनोज पांडेय ने बताया कि ये जीन आमतौर पर शरीर की खराब डीएनए की मरम्मत करते हैं। जब ये ठीक से काम नहीं करते, तो कैंसर बढ़ सकता है। शोध के दौरान 5 ऐसे जीन भी पाए गए जो तीनों समूहों में अलग तरह से काम कर रहे थे। इससे पता चलता है कि ये जीन कैंसर के शुरूआती संकेत हो सकते हैं।
पित्त की थैली यानि गॉलब्लेडर, शरीर का एक छोटा सा अंग है जो लीवर के ठीक सामने होता है. इसका कार्य पित्त को संग्रहित करना तथा भोजन के बाद पित्त नली के माध्यम से छोटी आंत में पित्त का स्त्राव करना है। पित्त की थैली का कैंसर गंगा नदी के बेसिन में रहने वालों में काफी अधिक मात्रा में पाया जाता है।
यह भारत का पहला अध्ययन है, जिसमें कैंसर, पथरी और सामान्य ऊतकों की एक साथ तुलना की गई है। ये नए जीन बायोमार्कर की तरह काम कर सकते हैं, जो शरीर में कैंसर का संकेत देने में और इलाज चुनने में मदद कर सकते हैं। बताया कि यह खोज गॉलब्लैडर कैंसर को समय रहते पकड़ने में सहायक हो सकती है। यदि इन बायोमार्कर की और पुष्टि हो जाती है, तो इससे निदान और उपचार की दिशा पूरी तरह बदल सकती है।
पित्त की थैली के कैंसर के 5 फीसदी मरीज
प्रो. मनोज पांडेय और प्रो. वीके शुक्ला ने बताया कि सर सुंदर लाल चिकित्सालय में आने वाले कैंसर मरीजों में करीब 5 फीसदी मरीज पित्त की थैली के कैंसर के होते हैं। यह कैंसर ज्यादातर 45 वर्ष से अधिक आयु वाली महिलाओं में पाया जाता है, पुरुषों की तुलना में यह महिलाओं में 5 गुना अधिक होता है। अधिकतर मरीजों में गाल स्टोन भी साथ मिलता है। शुरूआती अवस्था में कोई लक्षण न होने के कारण यह कैंसर देरी से पता चलता है, और उस अवस्था में कोई इलाज न होने के कारण ज्यादातर मरीज 6-12 माह में मौत हो जाती हैं।