अंकों के फेर में उलझी बच्चों संग अभिभावकों की जिंदगी!
*परीक्षा परिणाम और तनाव के बीच आखिर किस दौड़ और होड़ में शामिल हो रहे हमारे बच्चे?
*ठूंस-ठूंस कर नंबर और कैरियर की प्रतिस्पर्धा की रेस में खुद को समझने- समझाने से वंचित हो रहे बच्चे
वाराणसी (रणभेरी)। अभी हाल ही में बच्चों के यूपी बोर्ड और सीबीएसई बोर्ड के हाईस्कूल और इंटर के नतीजे आए हैं। ये परीक्षाएं और इनके परिणाम महत्वपूर्ण होते हैं, खास इसलिए भी क्योंकि ये 10-12 वर्षों की लगातार मेहनत का फल माने जाते हैं। इस समय बच्चों सहित पूरे परिवार का ध्यान केवल बच्चों के अंकों के उतार-चढ़ाव पर ही रहता है जिसके 99 प्रतिशत अंक आते हैं उसे 1 प्रतिशत कम आने का गम घेरता है जिसकी तीसरी पोजीशन होती है उसको दूसरी पोजीशन और दूसरे वाले को पहली रैंक ज्यादा आकर्षित करती है इसलिए खुशियों के माहौल में संतुष्टि नदारद रहती है।
कम अंक पाने वाले बच्चों को भी प्रोत्साहित करें। मनोवैज्ञानिकों और कॅरियर काउंसलरों के मुताबिक परीक्षाओं के नतीजे में कम नम्बर लाने वाले बच्चों को हतोत्साहित नहीं होना चाहिए। उन्हें आगे बेहतर योजना की तैयार करनी चाहिए। अभिभावक बच्चों को समझाएं। उन्हें आगे के लिए प्रोत्साहित करें। अभिभावकों, शिक्षकों और आस पड़ोस से लोगों को ऐसे बच्चों का हौसला बढ़ाना चाहिए। उन्हें और बढ़िया करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। बच्चों को अपनी इच्छा और रूचि के हिसाब से सही गाइडेंस लेकर ही विषयों का चुनाव करना चाहिए। कई बार बच्चे अपने अभिभावक के दबाव के कारण विषयों का चुनाव करने में गलती कर देते। ऐसे में उस क्षेत्र से जुड़े एक्सपर्ट की सलाह लें।
बच्चों के स्वास्थ्य के लिए गंभीर है लगातार तनाव में रहना
आज के दौर में तनाव एक ऐसी समस्या है जो बच्चों में भी तेजी से अपनी पैठ बना रहा है। अब बच्चे घर छोड़ने के बात मम्मी ने जलेबी बनाई है सुनकर नहीं लौटते जैसे 90 के दशक के टीवी एड में दिखाया जाता था। बच्चों की जरूरतें पहले से ज्यादा विकसित हो गई हैं। उनके सलाहकार गूगल बाबा हैं। जो सवाल से जवाब तक और मर्ज से इलाज तक मिनटों में ढूंढ लेते हैं। परिवार सीमित हो गए हैं। रिश्तों के नाम पर औपचारिकता का बोल बाला है जिसके कारण बच्चों को समझने समझाने वाले कांधे कम होते जा रहे और लगातार मनोचिकित्सकों की डिमांड बढ़ती जा रही है जो की भारत जैसे विकासशील देश में, देश के हर कोने में पहुंच से बाहर हैं। अभी मनोचिकित्सकों की कमी को पूरा करने में समय लगेगा।
पहले से अब के शिक्षा व्यवस्था में हुए परिवर्तन
हम सभी इस दौर से होकर गुजरे हैं पहले और आज के रिजल्ट आने की प्रक्रिया और परिणामों में बहुत परिवर्तन हो चुके है। पहले ज्यादातर माता-पिता, जो कम पढ़े लिखे होते थे और उन्हें मनोविज्ञान के विषय में जानकारी नहीं थी लेकिन वे बच्चों का मानसिक दबाव कम करने का काम बखूबी जानते थे। वे 10वीं-12वीं की कक्षाएं प्रारंभ होने के साथ ही यह कहना आरंभ कर देते थे कि पास होने भर के अंक आ जाएं बस, चाहे थर्ड क्लास ही क्यों न आए, बस पास हो जाना ज्यादातर माता पिता सिलेबस और पढ़ाई के डेली रूटीन से भी अनजान रहते थे। उनकी प्रार्थना और दुआएंं भी बच्चे के पास होने तक ही रहती थी। शायद उनका डर उनकी ख्वाहिश से बड़ा रहता था कि कहीं बच्चों को तनाव न हो जाए। हालांकि, पहले 60 प्रतिशत अंक आने में गांव में हफ्तों चचार्एं हुआ करती थी, जिनके 60 प्रतिशत अंक आते थे। उनके माता-पिता का सीना गर्व से महीनों तक फूला रहता था। इसके विपरीत अब तो 80-90 प्रतिशत अंक भी संतुष्टि के दायरे से बहार कर दिए गए हैं, जिसका परिणाम है की हम बच्चों में अनावश्यक दबाव बढ़ाते जा रहे हैं। हम समझ ही नहीं पा रहे कि हम अपने बच्चों को जीवन की किस दौड़ में शामिल करा रहे हैं। जहां मंजिल पर पहुंच कर नंबर वन बने रहने की भूख उन्हें खोखला बना रही है और जीवन के आनंद से वो वंचित हो रहे हैं। इधर, पहले भी सबसे संवेदनशील रिजल्ट के तौर पर 10-12 वीं का ही परिणाम था। हफ्तों पहले से परिवार वाले बच्चों पर नजर बनाए रखते थे। इतने पर भी बहुत सारे बच्चे परिणाम आने के पहले और बाद में आत्महत्या करने की कोशिश करते थे। कुछ के तो आत्महत्या के बाद आने वाले परीक्षा परिणाम में बहुत अच्छे नंबर भी होते थे जिन्हें देख उनके माता-पिता जीवन भर का दु:ख सहन करने के लिए मजबूर हो जाते थे। आस-पड़ोस वाले उन बच्चों का उदाहरण देकर दूसरे बच्चों को मोटिवेट किया करते थे ताकि वो कोई गलत कदम न उठाए, जिसका परिणाम होता था कि बच्चे अंकों की दौड़ में जीवन में संतुलन बनाना सीख लेते थे और बड़ी परीक्षाओं में फेल होने पर भी जीवन की परीक्षा में वे पास हो जाते थे। तब कोटा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि विभिन्न स्थानों से इतनी बड़ी संख्या में हृदय विदारक खबरे कम ही आती थी तब सबसे संवेदनशील पड़ाव 10-12वीं ही हुआ करते थे। ऐसा नहीं है की आज के माता पिता बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रखते हैं। बस नंबर और कैरियर की प्रतिस्पर्धा उनमें ठूस-ठूस कर भर रहे हैं जो बच्चों को खुद को समझने, समझाने का मौका नहीं देते।
परीक्षा का अंक जीवन का अंतिम लक्ष्य नहीं
एक परीक्षा के परिणाम से बच्चे का भविष्य तय नहीं किया जा सकता। अच्छे अंक न ला पाने वाले बच्चों की प्रतिभा का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। अभिभावकों को ऐसे समय में बच्चों का हौसला बढ़ाना चाहिए। परीक्षा परिणाम को लेकर छात्रों से बहस न करें। कम नंबर आने एवं फेल होने पर छात्र को डांटें नहीं तथा न ही किसी छात्र से तुलना करें। असफलता जीवन का हिस्सा है। इससे सबक लेकर आगे की अच्छी तैयारी करें। मेहनत करने व अच्छे अंक लाने का संकल्प दिलाएं। छात्रों के व्यवहार में नजर रखें। दूसरे लोग क्या कहेंगे, इसकी चिंता छोड़ दें। कम अंक लाने वाले बच्चों पर तनाव हावी न होने दें। छात्र परीक्षा परिणाम को लेकर दिमाग में कोई वहम न पालें। एक परीक्षा परिणाम से भविष्य निर्धारित नहीं होता है। रिजल्ट जैसा भी है, उससे सबक लेकर भविष्य में और बेहतर करने का संकल्प लें। मन में नकारात्मक विचार ना लाएं। बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जिनके बोर्ड परीक्षाओं में अच्छे अंक नहीं थे, लेकिन वह आईएएस व आईपीएस तक बने हैं। ऐसे में बढ़िया योजना और समय प्रबंधन के साथ आगे की तैयारी करें।
बच्चों के बदलाव पर रखें नजर
अधिवक्ता नमिता झा ने बताया कि रिजल्ट आने के बाद बच्चे के व्यवहार में हो रहे बदलावों पर भी पैरेंट्स को नजर रखनी चाहिए। क्योंकि रिजल्ट के बाद के कुछ घंटे बेहद संवेदनशील होते हैं। ऐसे में बार-बार रिजल्ट की बात करना ठीक नहीं होगा। खराब रिजल्ट आने पर बच्चे को लगता है कि वे माता-पिता की इच्छा को पूरी नहीं कर पाए। ऐसे में माता-पिता को बच्चों को तनाव से निकालना चाहिए। माता-पिता को अपने बच्चों को समय-समय पर प्रेरित करना चाहिए। बच्चों को अपनी क्षमता का आभास कराए और उनके कदम से कदम मिलाकर चलें। परीक्षा का अंकपत्र जीवन का लक्ष्य निर्धारित नहीं करता। कई ऐसे व्यक्तित्व है जिन्होंने परीक्षा में कई बार असफल होने के बावजूद उन्होंने अच्छे मुकाम हासिल किए है। उन्होंने अपने परिवार, समाज और देश का नाम रोशन किया। अभिभावकों से अनुरोध है कि वो अपने बच्चों पर भरोसा करें।
-एडवोकेट नमिता झा
बच्चे को विश्वास में लें
डॉ. प्रद्युम्न राय ने बताया कि अभिभावक बच्चों पर विशेष ध्यान दें। बच्चें को विश्वास में लें। रिजल्ट आने से पहले अक्सर पैरेंट्स बच्चे के एडमिशन या इससे जुड़ी अन्य बातें करने लगते हैं। अगर इतना प्रतिशत आएगा तो इस कालेज में एडमिशन मिलेगा, इस तरह की बातें न करें। प्रतिशत के लिए न डाटें। रिजल्ट आने के बाद अगर वह खराब है या जैसा सोचा वैसा नहीं है तो बच्चे को विश्वास में लें और उसे समझाएं कि यहां से एक नई मंजिल उसका इंतजार कर रही है।
-डॉ. प्रद्दुम्न राय