एक लंबी पाई से गड़बड़ाई शहर दक्षिणी की सियासी गणित

एक लंबी पाई से गड़बड़ाई शहर दक्षिणी की सियासी गणित
  • चूल्हे-चौके तक पहुंच बनाकर अजीत सिंह ने प्रचार के अंतिम दौर में बनाई बढ़त

वाराणसी (रणभेरी): पश्चिम से होकर पूरब को आ रही चुनावी बयार अब रंग दिखाने लगी है। प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय क्षेत्र में यह हवा माहौल बनाने लगी है। सभी सीटों पर चुनाव का घमासान जारी है। जनता तक पहुंच बनाने के लिए चुनाव की जीत-हार से पहले ही घनघोर प्रचार अभियान का क्रम जारी है। हम आज बात करेंगे बीते कई दशकों से भाजपा का गढ़ माने जानेवाले शहर दक्षिणी की जहां इसबार रवायत से अलग हटकर फिजा बनती नजर आने लगी है। इस क्षेत्र के चुनाव की नब्ज अगर टटोलें तो आम तौर पर शचींद्र नाथ बख्शी से शुरू होकर चरण दास सेठ व उसके बाद सात विधानसभा चुनावों तक इस क्षेत्र पर दादा श्यामदेव राय चौधरी का प्रभाव परछाई के रूप में ही सही, क्षेत्र के चुनाव परिणामों की हरारत बताता रहा है।

भाजपा की जीत के रूप में हर बार सामने आता रहा है। कांग्रेस प्रत्याशी कैलाश नाथ टण्डन और डॉ. रजनीकांत दत्ता मध्य काल में कांग्रेस के झंडाबरदार के रूप में जरूर सामने आए, किंतु मुख्य मुकाबला यहां शुरू से ही कांग्रेस, भाजपा या तत्कालीन जनसंघ के रूप में ही सामने आता रहा है। लघु भारत काशी के इस क्षेत्र की मिलीजुली आबादी में बनारसियों के अलावा मराठी, बंगाली, गुजराती, मारवाड़ी और नेपाली आबादी भी हर बार चुनाव को प्रभावित करती रही है। इसके अलावा खत्रियों का एक मुश्त वोट भी हमेशा निर्णायक भूमिका में रहा है। सन 70 के दशक के पहले यह क्षेत्र कम्युनिस्ट पार्टी के भी प्रभाव में रहा और रुस्तम सैटिन जैसे पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता इसी क्षेत्र से चुनाव जीतकर विधानसभा तक पहुंचे। इस कालविशेष तक समाजवादी उम्मीदवारों ने भी कई बार मशक्कत की किंतु देवव्रत मजूमदार भी भाजपा और कांग्रेस के बीच ही डोलती रहने वाली इस सीट का तिलस्म भेद नहीं पाए। अबकी आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी अजीत सिंह की उम्मीदवारी से इस क्षेत्र की परंपरागत गणित गड़बड़ाती नजर आ रही है।

दरअसल पहली बार ऐसा हुआ है जब परंपरा के भजन-कीर्तनसे अलग कोई दूसरा नाद-निनाद क्षेत्र को मथता दीख पड़ता है। अपनी दावेदारी के साथ ही प्रतिद्वंदियों के सामने एक लंबी लकीर खींच देने वाले आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार अजीत सिंह ने खुद की यह पहचान अपनी कर्मठता के दम पर बनाई है। सच कहें तो इस युवा प्रत्याशी की यही संपति है, यही कमाई हैं। राजनीति के पंडितों को असमंजस में डालने वाला यह समीकरण अजीत के नामांकन के दिन से ही अंक बदलता नजर आने लगा था। इस क्षेत्र की पारंपरिक लीक तोड़कर अपने अलग सूत्र बनाने लगा था। यह ठीक है कि इसबार भी भाजपा, कांग्रेस व सपा के मजबूत प्रत्याशी भी अपने धरोहरी जनाधार के दम पर ताल ठोक रहे हैं लेकिन इस नई गणित की परिभाषा इसबार पूरी तरह बदली हुई है। राजनीति के पंडित भी यह मान रहे हैं कि अजीत की दावेदारी से क्षेत्र का एक अलग ही रूप परिदृश्य पटल पर आने लगा है। बड़े बड़े दिग्गजों के हौसलों को डगमगाने लगा है। विश्लेषण करें तो निश्चित तौर पर भारतीय जनता पार्टी को अपने इस अभेद दुर्ग की मजबूती का गुमान है। समाजवादी पार्टी भी कुछ खास बिरादरियों और अल्पसंख्यक मतों की ठेकेदारी का दावा कर रही है। कांग्रेस प्रत्याशी मुदिता अग्रवाल इस बार भी खत्रियों का थोक वोट पाने की मंशा से चुनावी मैदान में मजबूती से डटी हैं।

लेकिन किसी समय कांग्रेस की ओर से ही इसी फॉमूर्ले पर चुनाव लड़े राजेश खत्री का दांव खाली गया था, यह भी याद रखने की बात है। रही भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी और भाजपा सरकार में मंत्री नीलकंठ तिवारी के उम्मीदवारी की बात तो यहां भाजपा के पारंपरिक वोटों की प्रतिबद्धता के बाद भी अगर नीलकंठ जीत के प्रति खुद को आश्वस्त नहीं पा रहे हैं तो उनसे जनता की नाराजगी के साथ यह बदला हुआ समीकरण भी एक बड़ा कारण है। आने वाले 7 मार्च को कयासों का यह दौर चलता रहेगा और दस मार्च को फैसला होगा जीत-हार का, किंतु अभी प्रचार के पहले ही दौर में बढ़त बना चुके आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार ने जिस दमदारी से अपनी बात मतदाताओं के चूल्हे-चौकों तक पहुंचाया हैं, उसने बाकी के उम्मीदवारों के कंफर्ट जोन का दायरा तो तोड़ ही दिया है। आने वाले दिनों में अगर यह बढ़त ऐसी ही बनी रही तो इस क्षेत्र में आम आदमी पार्टी और भाजपा के बीच सीधी टक्कर का संयोग बनने की संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता।