राष्ट्रप्रेम से जुड़ा है बाबा के खादी वस्त्र का इतिहास

राष्ट्रप्रेम से जुड़ा है बाबा के खादी वस्त्र का इतिहास

वाराणसी(रणभेरी)। महाशिवरात्रि पर काशी पुराधिपति का विवाह हर्षोल्लास से मनाये जाने के बाद काशी नगरी अब उनके गौने के तैयारी में जुट गई है। विवाह से ठीक 14वें दिन पड़ने वाले रंगभरी एकादशी पर बाबा विश्वनाथ के गौने की परम्परा है। रंगभरी एकादशी कल पड़ रही है। काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत डॉ. कुलपति तिवारी के आवास पर गौना की रस्म अदा की जा रही है। ऐसी मान्यता है, रंगभरी एकादशी के दिन बाबा विश्वनाथ स्वयं भक्तों के साथ होली खेलते हैं। विश्वनाथ मंदिर के महंत आवास पर 350 सालों से भी ज्यादा समय से लगातार रंगभरी एकादशी के दिन पालकी में विराजमान बाबा विश्वनाथ, माता पार्वती और गणेश की चल रजत प्रतिमाओं के राजसी स्वरूप का दर्शन होता है। शाम के समय बाबा की पालकी उठने से पहले संगुन के गीतों के साथ बाबा के स्वरूपों संग होली खेली जाएगी। इसके बाद शोभायात्रा निकलेगी जो महंत आवास से विश्वनाथ मंदिर तक जाएगी। इसमें हजारों की संख्या में भक्त अबीर-गुलाल उड़ाते चलेंगे। गर्भगृह में प्रतिमाएं स्थापित कर होली खेलने के बाद विशेष सप्तर्षि आरती होगी।

काठ के पालकी से शुरू हुई थी परम्परा

मन्दिर के महंत डॉ. कुलपति तिवारी ने बताया, लगभग 350 से ज्यादा वर्ष पुरानी यह परम्परा हमारे पूर्वजों ने शुरू की थी। बताया, सन 1842 में हमारे पूर्वज प.स्व. विशेश्वर दयाल तिवारी ने लकड़ी के काठ के पालकी पर यात्रा निकलना शुरू किया जो निरन्तर कई वर्षों तक चलता रहा। इसके बाद मौजूदा महंत के दादा प. स्व. महावीर प्रसाद तिवारी ने 1917 में रजत पालिका सिंहासन का निर्माण कराया। उसके बाद से रजत पालिका पर बाबा के गौने का यात्रा निकलना शुरू हुआ जो निरन्तर चला आ रहा है। सन 1993 से मैंने खुद इस परम्परा को निभाना शुरू किया है। धीरे-धीरे मैंने गौने के आयोजन को और बढ़ाया और सन 2010 से महंत आवास पर शिवांजली का कार्यक्रम शुरू कराया है। जिसमे सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजन होते है।

खादी का इतिहास

महंत डॉ. कुलपति तिवारी बताते है, बात जब राष्ट्रप्रेम की हो तो भला उसे कैसे अधूरा छोड़ा जा सकता है। सन् 1934 में देश में स्वतंत्रता आंदोलन के साथ ही खादी का अभियान भी गरम था। उस समय रंगभरी एकादशी पं. पर जवाहरलाल नेहरू की माता स्वरूप रानी, बाबा काशी विश्वनाथ का दर्शन करने आई थीं बाबा दरबार में उन्होंने देवाधिदेव महादेव की रजत प्रतिमा को खादी पहनाने की इच्छा भी महंत परिवार के सामने रखा था। आगंतुक पंजिका का तब प्रचलन नहीं हुआ करता था, ऐसे में उन्होंने जाते-जाते एक पत्र तत्कालीन महंत पं. महाबीर प्रसाद तिवारी को दिया था। तब से बाबा को एकादशी पर खादी का वस्त्र धारणा कराया जाता है।