...वह महान शख्सियत जिनके लिए शिक्षा ही थी सर्वोपरि
छल और कपट से रहते थे दूर, अंग्रेजी सरकार ने भी 'सर' की उपाधि से किया था अलंकृत
जयंती विशेष
वाराणसी (रणभेरी सं.)। शिक्षा और साक्षरता ऐसे लफ्ज हैं जिनका जिक्र आते ही सकारात्मक और नकारात्मक विचारों की कशमकश शुरू हो जाती है। आखिर यह हो भी क्यों ना, वर्तमान आधुनिक शिक्षा को एक व्यापार का रूप जो दे दिया गया है। यही कारण है कि आज भी डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के कार्यों को शिद्दत से याद किया जा रहा है। उन्होंने न सिर्फ बीएचयू के कुलपति के रूप में छात्रों के व्यक्तित्व विकास पर जोर दिया, बल्कि एक शिक्षक का आदर्श जीवन भी प्रस्तुत किया। शायद यही वजह है कि प्रतिवर्ष पांच सितंबर को हम उनका जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं। भारत के दूसरे राष्ट्रपति के तौर पर देश को शिक्षा के क्षेत्र में नई ऊचाईयां प्रदान करने वाले डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का काशी से गहरा नाता रहा था, काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बतौर कुलपति उनकी स्मृतियों से जुड़े दस्तावेज उनकी काबिलियत व योगदान को सराहते नहीं थकते। शिक्षा के प्रति समर्पण का भाव ऐसा था कि बतौर कुलपति वेतन लेने से भी परहेज रखा।
आजादी से पहले ही शिक्षा के बड़े केंद्र के तौर पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय की महत्ता जगजाहिर हो चुकी थी। इसकी स्थापना व संचालन के दायित्वों के साथ महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के गिरते स्वास्थ्य के बीच जब डॉ. राधाकृष्णन ने विश्वविद्यालय का दायित्व संभाला, तब देश गुलाम था, वर्ष 1939 से 1948 तक वह विश्वविद्यालय के कुलपति के तौर पर कार्यरत रहे। इससे पूर्व वह कलकत्ता विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर पद के साथ आॅक्सफोर्ड विवि में भी पूर्वीय दर्शन के प्रोफेसर पद पर सेवाएं दे रहे थे।
बीएचयू से जुड़ने के बाद तीन जगहों पर दायित्व निर्वहन के दबाव को देखते हुए उन्होंने कलकत्ता विवि से त्यागपत्र दे दिया और आक्सफोर्ड विवि संग बीएचयू की जिम्मेदारियों के निर्वहन में लग गए। उनके कार्यकाल के दौरान सन् 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन में बीएचयू के छात्रों की हिस्सेदारी की मंशा भांप ब्रिटिश सरकार ने विश्वविद्यालय बंद कराने का प्रयास किया, ऐसे में डॉ. राधाकृष्णन ने प्रयास कर बीएचयू को बचाने की बुद्धिमत्तापूर्ण कोशिश की और ब्रिटिश सरकार की मंशा को सफल नहीं होने दिया। उनका मानना था कि यह राष्ट्रीय संस्था है, लिहाजा यहां नि:स्वार्थ सेवा ही सच्ची राष्ट्र सेवा है।
वाराणसी में शैक्षिक योगदान सहित जीवन में उन्होंने चार दशक बतौर शिक्षक अपने दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वहन किया। महामना की बगिया कहे जाने वाले बीएचयू में आज भी डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्ण की स्मृतियों की संजोया और सहेजा गया है। भारत कला भवन, राधाकृष्णन सभागार सहित विभिन्न विभागों में उनके चित्र और उनसे संबंधित दस्तावेजों के संरक्षण संग एक छात्रावास भी उनके नाम पर है। एक लंबी बीमारी के कारण 17 अप्रैल 1975 को डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन हम सभी को छोड़ कर इस दुनिया को अलविदा कह गए, जो कि देश के लिए अपूर्णीय क्षति थी, सन् 1975 में मरणोपरांत उन्हें अमेरिकी सरकार द्वारा टेंपलटन पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
क्यों मनाया जाता है शिक्षक दिवस
भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन (5 सितंबर) भारत में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्ण के जन्मदिन को 1962 से शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। उन्होंने अपने छात्रों से जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की इच्छा जताई थी दुनिया के 100 से ज्यादा देशों में अलग-अलग तारीख पर शिक्षक दिवस मनाया जाता है। जब डॉ. एस राधाकृष्णन भारत के राष्ट्रपति बने तो उनके कुछ छात्र व मित्र उनके पास पहुंचे और उनसे अनुरोध किया कि वे उन्हें अपना जन्मदिन मनाने की अनुमति दें। उन्होंने उत्तर दिया कि मेरे जन्मदिन को अलग मनाने के बजाय इस 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाए तो यह मेरे लिए गौरवपूर्ण सौभाग्य होगा। तब से उनकी जयंती यानी 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाया जाने लगा।
बीएचयू में संरक्षित हैं सर्वपल्ली की स्मृतियां
काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बतौर कुलपति उनकी स्मृतियों से जुड़े दस्तावेज उनकी काबिलियत व योगदान को सराहते नहीं थकते। महामना में आज भी उनकी स्मृतियों को संजोया और सहेजा गया है। भारत कला भवन, राधाकृष्णन सभागार सहित विभिन्न विभागों में उनके चित्र और उनसे संबंधित दस्तावेजों के संरक्षण संग एक छात्रावास भी उनके नाम पर है।
वेतन से भी था डॉ. राधाकृष्णन को परहेज
भारत के दूसरे राष्ट्रपति के तौर पर देश को शिक्षा के क्षेत्र में ऊंचाइयां प्रदान करने वाले डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का काशी से गहरा रिश्ता रहा है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बतौर कुलपति उनकी स्मृतियों से जुड़े दस्तावेज उनकी काबिलियत व योगदान को सराहते नहीं थकते। शिक्षा के प्रति समर्पण का भाव ऐसा था कि बतौर कुलपति वेतन लेने से भी परहेज रखा। आजादी से पहले ही शिक्षा के बड़े केंद्र के तौर पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय की महत्ता जगजाहिर हो चुकी थी। इसके स्थापना व संचालन के दायित्वों के साथ पं. महामना मदन मोहन मालवीय जी के गिरते स्वास्थ्य के बीच जब डॉ. राधाकृष्णन ने विश्वविद्यालय की कमान बतौर कुलपति संभाली, तब देश गुलाम था। 1939 से 1948 तक वह विश्वविद्यालय के कुलपति के तौर पर कार्यरत रहे। इससे पूर्व यह कलकत्ता विवि में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर पद के साथ आक्सफोर्ड विवि में भी पूर्वीय दर्शन के प्रोफेसर पद पर सेवाएं दे रहे थे। बाद में तीन जगहों पर दायित्व निर्वहन के दबाव को देखते हुए उन्होंने कलकत्ता विवि से त्यागपत्र दे दिया और आक्सफोर्ड विवि संग बीएचयू की जिम्मेदारियों के निर्वहन में रत हो गए। उनके कार्यकाल के ही दौरान सन 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो आआंदोलन में बीएचयू के छात्रों की हिस्सेदारी की मंशा भांप ब्रिटिश सरकार ने विश्वविद्यालय बंद कराने का प्रयास भी किया। ऐसे में राधा कृष्णन ने प्रयास कर बीएचयू को बचाने की बुद्धिमतापूर्ण कोशिश की और ब्रिटिश सरकार की मंशा को सफल नहीं होने दिया।
एक शिक्षक का संदेश
उनका सभी बच्चों और शिक्षकों के लिए यही संदेश था कि चाहे कितनी भी मुश्किल आए आप सभी उसका सामना करो। किसी भी कार्य को हार मान लेना असली सफलता नहीं है बल्कि उसपर विजय पाना ही असली सफलता है। उन्होंने कहा था सिर्फ ज्ञान अर्जित कर लेना ही शिक्षा की परिभाषा नहीं है। असली ज्ञान तो वो है जिसे आप दूसरे में इस कदर बाटें की उस ज्ञान से उसका जीवन सफल हो जाये।
' एक दार्शनिक के विचार'
- केवल निर्मल मन वाला व्यक्ति ही जीवन के आध्यात्मिक अर्थ को समझ सकता है। स्वयं के साथ ईमानदारी आध्यात्मिक अखंडता की अनिवार्यता है।
- शिक्षक वह नहीं जो छात्र के दिमाग में तस्यों को जबरन दूसे, बल्कि वास्तविक शिक्षक तो वह है जो उसे आने वाले कल की चुनौतियों के लिए तैयार करें।
- ज्ञान हमें शक्ति देता है, प्रेम हमें परिपूर्णता देता है।
- कोई भी आजादी तब तक सच्ची नहीं होती, जब तक उसे विचार की आजादी प्राप्त न हो। किसी भी धार्मिक विश्वास या राजनीतिक सिद्धांत को सत्य की खोज में नहीं देनी चाहिए।