हुजूर यह कैसा फरमान ! पेड़ - पौधे काटकर संजो रहे विकास का अरमान 

हुजूर यह कैसा फरमान ! पेड़ - पौधे काटकर संजो रहे विकास का अरमान 

 विश्व पर्यावरण दिवस 

विकास के नाम पर मेहनत से लगाए गऐ पेड़ों पर चला प्रशासन की कुल्हाड़ी, वीरान हो गई सड़कें, खत्म हो गई हरियाली

वाराणसी (रणभेरी सं.)। आज जब पूरी दुनिया विश्व पर्यावरण दिवस मना रही है, तब बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी में भी पेड़ लगाओ, पर्यावरण बचाओ जैसे नारों की गूंज सुनाई दी। अखबारों के पन्ने सरकारी वृक्षारोपण की तस्वीरों से रंगे हुए हैं, अधिकारी और नेता हरी टोपी व गमछे पहनकर पौधरोपण करते दिख रहे हैं, और हर कोई खुद को पर्यावरणविद बताने में गर्व महसूस कर रहा है। लेकिन इन तमाम प्रदर्शनों और घोषणाओं के पीछे जो कड़वी सच्चाई छिपी है, वह यह कि काशी आज कंक्रीट के जंगल में तब्दील होती जा रही है। कभी "आनंद कानन" या "आनंदवन" के नाम से प्रसिद्ध इस नगर में प्रकृति का भरपूर आशीर्वाद था झ्र चारों ओर हरियाली, सैकड़ों कुंड-तालाब, पांच नदियों की गोद में बसी यह नगरी एक संतुलित पारिस्थितिकी तंत्र का जीवंत उदाहरण थी। लेकिन आज हालत यह है कि गिनती के कुछ कुंड बचे हैं, और असि, वरुणा तथा गंगा के अलावा शेष नदियों की स्थिति या तो विलुप्त हो चुकी है या गंभीर संकट में है।
पेड़ों की बात करें तो बीएचयू, बीएलडब्ल्यू और संपूणार्नंद संस्कृत विश्वविद्यालय जैसे कुछ संस्थानों को छोड़कर पूरे नगर में हरियाली ढूंढे नहीं मिलती। खासतौर से बीएचयू मुख्य द्वार से लेकर रविंद्रपुरी कॉलोनी और बाबा कीनाराम स्थली तक जो सड़क जाती है, वह कभी दोहरी हरियाली से आच्छादित रहती थी। सड़क के दोनों किनारों पर बड़े-बड़े पुराने पेड़ राहगीरों को छांव देते थे। गर्मी में लोग उनके नीचे खड़े होकर कुछ देर राहत पाते थे। लेकिन अब वह सब इतिहास बन चुका है। सड़क चौड़ीकरण योजना के नाम पर इन पेड़ों को बेरहमी से काट दिया गया। यह वही प्रदेश है जहां मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ स्वयं अफसरों को निर्देश देते हैं कि सड़क चौड़ीकरण के दौरान पेड़ों को बचाते हुए काम हो। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि काशी में इन निदेर्शों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। स्थानीय अधिकारियों की मनमानी और ठेकेदारों की सहूलियत के लिए वर्षों पुराने पेड़ों को काट दिया गया। नतीजा यह कि अब यह मार्ग कंक्रीट का बंजर रेगिस्तान सा दिखता है, जहां न तो छांव है, न हरियाली और न ही पर्यावरण की कोई चेतना।
यह विडंबना ही है कि स्मार्ट सिटी के नाम पर पहले पेड़ काटे जाते हैं, फिर उसी जगह पौधे लगाने का ढोंग किया जाता है। यह विकास नहीं, विनाश है। और यह सिलसिला सिर्फ काशी तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश में एक ही मॉडल पर विकास का नाटक चल रहा है..."पेड़ काटो, फिर लगाओ", वह भी केवल कागजों पर। सरकारी फाइलों में हर साल लाखों पेड़ लगाए जाते हैं। आंकड़ों के हिसाब से देखें तो अब तक पूरा प्रदेश घना जंगल बन जाना चाहिए था, लेकिन जमीनी स्तर पर न पौधे बचते हैं, न पेड़, और न ही किसी की जवाबदेही तय होती है। स्थानीय प्रशासन और नगर निगमों के रजिस्टर भले ही हरे-भरे हों, पर हकीकत यह है कि शहर की सड़कें तपते रेगिस्तान में तब्दील हो गई हैं। आज जब पर्यावरण को बचाने की सबसे अधिक जरूरत है, तब सबसे अधिक दोहन उसी का हो रहा है। जिन रास्तों पर कभी हरियाली होती थी, वे अब धूल, गर्मी और प्रदूषण का केंद्र बन चुके हैं। रविंद्रपुरी मार्ग इसका जीता-जागता उदाहरण है।

आज के इस पर्यावरण दिवस पर सवाल यह नहीं है कि कितने पौधे लगाए गए, बल्कि सवाल यह है कि कितने पुराने पेड़ बचाए गए? विकास के नाम पर पेड़ों की बलि चढ़ाने वाला यह मॉडल न सिर्फ हमारी जलवायु के लिए खतरनाक है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक घातक विरासत छोड़ रहा है। काशी की महानता इसकी आध्यात्मिकता के साथ-साथ उसके नैसर्गिक सौंदर्य में भी थी। आज वह सौंदर्य खोता जा रहा है। क्या यही स्मार्ट सिटी का सपना था? क्या विकास का अर्थ सिर्फ इमारतें और चौड़ी सड़कें हैं? अगर पेड़ काटकर फिर नए लगाने का ही नाम विकास है, तो यह एक बेहद खोखली और पर्यावरण विरोधी सोच है। काशी में आज अगर किसी चीज की सबसे ज्यादा जरूरत है, तो वह है "हरियाली की पुनर्स्थापना"... सच्ची, ईमानदार और जमीनी। वरना पेड़ लगाओ जैसे नारे हर साल 5 जून को आते रहेंगे, और बाकी 364 दिन पेड़ काटे जाते रहेंगे।