चार यार की चौकड़ी जतन चार चौरासी 

चार यार की चौकड़ी जतन चार चौरासी 

वाराणसी (रणभेरी)। मित्र मंडली की गल्प गोष्ठी में चली कोई बात यदि कल्पना के खांचे में उतर जाए, पुख्ता इरादों में ढल जाए तो लगन और धुन की कठिन कसौटियों पर कस कर इसे यथार्थ रूप में जमीन पर उत्तारना 'असंभव' तो कतई नहीं रह जाता। आज न केवल देश, अपितु विदेश के संगीत रसिकों के मन में सांगीतिक महाकुंभ के रूप में प्रतिष्ठित संकट मोचन संगीत समारोह भी रेशमी अहसास वाली एक ऐसी ही सोच के साकार होने की कहानी है। लगभग सौ साल पहले चार संगीत साधक मित्रों के हाथों रोपे एक बिरवे के घनेरे वट वृक्ष के रूप में हुए असीम विस्तार का कथ्य प्रवाह है।  इसमें काशीकेयी दर्शन का ठहराव और गंगा की लहरों की रवानी है। बात शुरू होती है कवीरचौरा से कोई तीन दशक पहले शेष स्मृति तबला सम्राट पद्म विभूषण पं. किशन महाराज की जुबानी सुनी कहानी के अनुसार बात है 19वीं सदी के पूर्वाद्ध की। पंडितजी द्वारा सुनाई सपाट बयानी शैली वाली कथा की शुरूआत होती है कबीरचौरा स्थित उनके ही घर से। घर की खटर-पटर से छूटी कोई बात किशन महाराज के मन में चुभ गई। रिसियाए पंडितजी ने अपने तबले की जोड़ी के साथ राह पकड़ ली संकटमोचन मंदिर की। वहां भेंट हुई अभिन्न मित्र महंत अमरनाथ मिश्र जी से। महंत जी ने घर वापसी को समझाया-बुझाया, बात न बनी तो मित्र के कोप प्रवास का इंतजाम कराया।
कल्पना को लगे पर
पं. किशन महराज के कहे के अनुसार महंत अमरनाथ जी के मन मस्तिष्क में यहीं से एक कल्पना टुकड़े-टुकड़े आकार लेने लगी। इसे यथार्थ का घरातल देने में चार चौरासी जतन करने पड़े, परंतु मित्रों के सहकार की बदौलत अंतत: सन 1923 में पहले पहल हनुमत लला की ड्योढ़ी पर एक व्यवस्थित संगीत समारोह का श्रीगणेश हो गया। शुरूआत में अधिकतर प्रस्तुतियां स्थानीय कलाकारों की ही थीं।
चार यार की चौकड़ी 
ख्यात पखावज वादक महंत अमरनाथ जी के दो अन्य मित्र धुरंधर तबला वादक पं. आशुतोष भट्टाचार्य व बेजोड़ सरोद वादक पं.  ज्योतिन भट्टाचार्य भी प्राय: हर दिन संकट मोचन मंदिर आते और कला का रास रंग सजाते। मंडली जब चौकड़ी हुई तो रंग गोष्ठी ने ताल-वाद्य कचहरी का रूप लिया। मंदिर परिसर सरोवर का घाट हर शाम लघु सांगीतिक गोष्ठी से मनसायनं होने लगा।

मिलती गई ऊंचाइयां 
आगे चलकर शेष स्मृति महंत वीरभद्र मिश्र के प्रयासों से देश के दिग्गज कलाकार हनुमत श्रीचरणों में हाजिरी बजाने लगे। प्रतिफल में यश-कीर्ति का शिखर मिला तो स्वयं आग्रह कर संकटमोचन बाबा की सेवा में कला प्रस्तुति पुष्प चढ़ाने लगे। बड़े महंत जी के शिव सायुज्य के बाद पीठ के नए महंत प्रो. विश्वम्भरनाथ मिश्र ने युग धर्म अनुसार कई वर्जनाएं तोड़ नई लीकों का निर्माण किया। पूर्वजों के एक छोटे से प्रयास को असीम विस्तार देकर काशी की इस सांस्कृतिक धरोहर को अंतरराष्ट्रीय फलक तक पहुंचा दिया।