काव्य-रचना
ऐ दिया
ऐ दीया!
तू कब तक जलेगा?
क्या तुझे पता है कि अभी
कहां कहां बैठा है अंधेरा घना?
क्या कभी रोशन होगा वह मन?
झूठ जालसाजी और मक्कारी से भरा
जिसमें ईर्ष्या और नफरत के दो पाट
जहां लालच का है चौखट बना
क्या तुझे पता है कि अभी
कहां कहां बैठा है अंधेरा घना?
क्या कभी रोशन होगा वह दिमाग?
जहां सिर्फ लूट के तिलिस्म बुने जाते
जिसमें मिलाई जाती खुदगर्जी की मिठास
जहां हर विचार है लहू से सना
क्या तुझे पता है कि अभी
कहां कहां बैठा है अंधेरा घना?
भेष धारे बैठे है सभी यहां
मुखौटे लगाए कई, एक चेहरे पर
कभी कर जाना ऐसा उजाला
कि होने न पाए इंसानियत फना
क्या तुझे पता है कि अभी
कहां कहां बैठा है अंधेरा घना?
ऐ दिया!
तू कब तक जलेगा?
क्या तुझे पता है कि अभी
कहां कहां बैठा है अंधेरा घना?
जयप्रकाश "जय बाबू "