काव्य-रचना
एक चिरय्या, मेरी बिटिया
कुछ खोना भी, पा जाना है,
यह मुझको अब ज्ञात हुआ|
उड़े चिरय्या नील गगन में,
लगता मैं भी साथ उड़ा|
छोड़ अटारी, उड़ी भ्रमण को,
मैंने न उसको टोका|
जान के मर्यादा पंखों की,
गगन में खीच रही रेखा|
इसके पंखों के बल पर,
अब नहीं रहा कोई संशय|
अब वह दाना ढ़ूंढ़ ही लेगी,
बुन भी लेगी एक आश्रय|
आखेटक का जाल भी अब,
इसको न उलझा पाएगा|
जो बोध मिला इस आंगन में,
हर नभ में वह काम आएगा|
हर ऋतु का है आभास इसे,
जल और मरीचिका में भेद करे|
बेर, निबोरी के गुण क्या,
है कौन सी नैया तट को बढ़े|
नाम उकेरेगी मेरा,
जिस डाल पे भी वह बैठेगी|
जग जाने, वह कहाँ से आई,
भोर होए जब चहकेगी|
अकसर मैं देखा करता हूँ,
आसमान में चारों ओर|
आंखें उसको ढ़ूढ़ा करती,
बजे कान में कलरव शोर|
हर दिन मैदा गूंथा करता,
कनक कटोरी भरता दाने|
बगिया रक्खी है हरी भरी,
ज्यों दूर से ही वह पहचाने|
अब आई तो कह दूंगा,
इस अंबर पर ही मंडराओ|
उड़ो व्योम तक भी तुम चाहे,
लौट शाम को घर आओ|
प्रवीण वशिष्ट