काव्य-रचना

काव्य-रचना

     मृत्यु तुम चुपके से मत आना...   

बिछा रखी है पलकें मैंने,
खुला रखा है घर का द्वार,
आँखों में है बस एक स्वप्न,
अंगना में सजेगी जैसे बारात |

जिस दिन तुम आओगी,
उस दिन खुशियाली होगी,
मेरे जीवन की जैसे वो,
होली और दिवाली होगी |

तन से मैले वस्त्र उतरेंगे,
शोक की एक दीप जलेगी,
नए रंगों से यह देह सजेगी,
अंगारों से चिता धधकेगी |

जीवन भर विष देने वाले,
अंतिम क्षण गंगाजल पिलायेंगे,
चिंगारी से बचकर रहने वाले,
चिता वो अग्नि की जलायेंगे |

दूर - दूर मुझसे रहने वाले,
मेरी एक झलक को तरसेंगे,
मुंह फेर के सदा चलने वाले,
अंतिम दर्शन पे फूल बिखेरेंगे |

उलझन भरे इस जीवन से,
मृत्यु अब मुझको प्यारी है,
जिस राह से गुज़रते थे रोज,
उस पथ पर करनी अंतिम सवारी है |

जीवन जिया जिस शान से,
वैसी ही अभिमान प्यारी है,
भय तनिक भी न मन में मेरे,
देह छोड़ने की कर ली तैयारी है |

चाह बस है यही मेरे मन में,
आस बस यही मेरे स्वप्न में,
हँसता हुआ हो तब चेहरा हमारा,
विदा लूँ जब तो देखे जमाना सारा |

सिर झुका कर कभी जिया नहीं,
हाथ फैला कर कभी लिया नहीं,
सब यहीं छोड़कर है यहीं जाना, पर;
मृत्यु तुम चुपके से मत आना ||

ख्वाब जो पूरे हुए न कभी,
उसका मुझको संताप नहीं,
रह गया जो अधूरा इस जीवन में,
उसका मुझको कोई पश्चाताप नहीं |

बातें थी बहुत पर वो सब छुपाया मैंने,
आइने को मगर सब कुछ बताया मैंने,
रूठता है अब तो रूठे ये जमाना, पर;
मृत्यु तुम चुपके से मत आना ||

जिस जीवन पर अपना अधिकार नहीं,
शर्तों  पर  जीना मुझको स्वीकार नहीं,
अच्छा है उस राह से खुद भटक जाना,
रोशनी का जैसे हो अँधेरे में खो जाना |

लगा रहेगा यहां आना - जाना,
जीवन का है यही अफसाना,
बदलता है तो बदले ये जमाना, पर;
मृत्यु तुम चुपके से मत आना ||...

राकेश कुशवाहा ‘ऋषि’