काव्य-रचना
वह मेहनत करने वाला
न जाने कहां चला गया
वह मेहनत करने वाला
किसानों का अनन्य साथी
माटी को जोतने वाला
न जाने कहां चला गया...
दिन भर चलता था
हल के जुए उठाए
चाहे रहट हो या फिर
खेती जब भी बोवाए
बस उसे चाहिए था
दो जून का निवाला
न जाने कहां चला गया...
पुट्ठे पर उसके जब भी
भूपति हाथ फिराता था
खिल उठती थी यह धरा
अंबर भी हरियाता था
उसकी दोस्ती अजब थी
उसे मेहनत ने था पाला
न जाने कहां चला गया...
शान था सहन की
जमीदारों का मान था
जिसके पास जितना
उसका उतना नाम था
बनकर नंदी त्रिपुरारी को
उसने कंधे पर है संभाला
न जाने कहां चला गया...
ऐ मेहनतकशों सोचो जरा
क्या इन दो बैलों की तरह?
इस अंधाधुंध भागती दुनियां में
पीछे छूट जाओगे इस तरह!
किस्से कहानियों में भी नहीं है
अब कोई लिखने पढ़ने वाला
न जाने कहां चला गया ....
जय प्रकाश "जय बाबू"