काव्य-रचना
'बाढ़'
बाढ़ से बढ़ गई है मुश्किलें
इन दिनों किसानों की
मंहगाई व सूखे की बाढ़ को झेल ही रहा था कि बढ़ते जलस्तर ने
डुबा दी उसकी गृहस्ती
क्षण भर में बह गए खाद, बीज,पशु, उपजाऊ मिट्टी
व उसके जरूरी समान
गिर गए हैं मेड़ के वे पेड़ सारे
गिर गए जो मिले थे मकान
उसके चेहरे पर चिंता की
लकीरों ने
कर दी है घोषणा
कि किसान मारा जाएगा एक दिन
सत्ता की बंदूकों से !
नहीं होंगे उसके बदन पर
खरोंच के एक भी निशान
मिलते रहेंगे उसे सत्ता के झूठे आश्वासन
टिकठी पर लेट जाने तक
राम नाम सत्य है की घोषणा के साथ
मुआवजे की बाट जोहता किसान
तोड़ देगा दम एक दिन
झोंक दिया जायेगा उसका शव जबरन
बिजली के शवदाह गृह में
प्रवाहित कर दी जायेंगी उसकी अस्थियां
बाढ़ की दहाड़ती धाराओं में
कोरे आश्वासनों के बीच
और ताकतवर होती जायेगी सत्ता दिनों दिन...!
मनकमना शुक्ल ’पथिक’