ढलती उम्र में भी जवान पं. हरिप्रसाद के वंशी की तान
वाराणसी(रणभेरी)। मनुष्य का शरीर जैसे-जैसे बूढ़ा होता है उसकी कला वैसे-वैसे जवान होती है। इस कथ्य का जीवंत उदाहरण रविवार को संकटमोचन संगीत समारोह की दूसरी निशा की दूसरी प्रस्तुति में पद्मविभूषण पं. हरिप्रसाद चौरसिया के बांसुरी वादन में दिखा। ढलती उम्र में उनके हाथ भले बांसुरी पकड़ने में कांप रहे थे लेकिन सुरों का कंपन राग के स्वरूप के पूर्णत: अनुकूल ही रहा। उनके द्वारा राग मारुविहाग की अवतारणा में तिल मात्र का भटकाव नहीं दिखा। मध्यम लय में शुद्ध स्वरों का प्रयोग राग के स्वभाव के अनुरूप दुर्लभ रहा। सा से शुरू करके ऋषभ का मींड के रूप में सधा प्रयोग जहां जानकारों के लिए हैरत का विषय था वहीं सिर्फ संगीत में सुरों का आनंद लेने वालों के लिए आनंद का आधार बना। बिलावल थाट के इस राग में पं. हरिप्रसाद चौरसिया ने सभी सात स्वरों का बहुत ही सधा प्रयोग किया। शुद्ध और तीव्र दोनों ही मध्यम स्वरों की लाजवाब बानगी उनके वादन में महसूस हुई। आलाप की शुरुआत मन्द्र निषाद से करते हुए आरोह में रे और ध का त्याग नितांत कुशलता से किया। अवरोह में सातों स्वरों का काल और तालबद्ध वादन बांसुरी वादन की मिसाल बना। आलाप और जोड़ के बाद उन्होंने श्रोताओं की तालियों के ताल के साथ ओम जय जगदीश रे की धुन से वादन को विराम दिया। पं. हरिप्रसाद चौरसिया के साथ बांसुरी सहयोग में उनकी दो शिष्याएं शुचि श्वेता चटर्जी, किरण बिष्ट तथा शिष्य घनश्याम चंद अपने गुरु के पदचिह्नों पर बढ़ते दिखे। तबले पर आशीष राघवानी ने सधी संगत की।