काव्य- रचना
काशी
काशी अपने आप में एक प्रश्न,काल गणना इसकी अनंत
यहीं सृष्टि का सृजन, तो यही मोक्ष की नगरी भी
यहां सवेरा योग से होता, तो सांझ संगीत बजाती
यहां विराजे स्वयं त्रिपुरारी, विश्वनाथ यही के वासी
मोह माया से जो घिर जाता, हर बंधन से मुक्ति पाता
तुलसीदास ने ज्ञान पाया, रामचरित का पाठ सुनाया
विस्मिल्लाह की शहनाई, प्रेमचंद्र की कृति छाई
महाशिवरात्रि का मंचन, भरत मिलाप अनुठा संगम
देखकर मंत्र मुग्ध हो जाए, काश यह क्षण रुक जाए
कचौड़ी सब्जी मन को भाता,जलेबी देख जी ललचाता
यहां मिठाई का गज़ब चलन, हर सीजन का स्वाद अलग
लस्सी से मन खिल जाता,ओस की बूंदे मलाइयो सजाता
पान बनारसी गाना बन जाता, यहां की साड़ी स्त्री को भाता
मस्ती में रहते यहां के वासी,घट घट मे बाबा बर्फानी
जो आए बन जाए ज्ञानी,महाकाल की ऐसी नगरी काशी
कंचन गुप्ता