काव्य-रचना

काव्य-रचना

       उषा          

प्रात पुष्प था बहुत खिला हुआ जैसे
लोहित आसमान का सूरज
पृथ्वी पर उतर रहा हो 
[नदी सागर की यात्रा में
नयी सुबह है ]
बहुत धुआँ उठ रहा है उधर
कि जैसे जंगल जल रहा हो
कागज़ पर या समय के श्यामपट पर
     लिख दी हो किसी ने 
कुम्हलाई कली की करुणा 
रूह की रोशनाई से
      और देह 
दर्द का गेह मालू हो रही है
गौर रेह रो रही है
रेत...
फ़सलें झुमती हैं रेगिस्तान में उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है!

             _  गोलेन्द्र पटेल