काव्य -रचना
उलझन में हूँ
पत्र लिखूँ या न लिखूँ उलझन में हूँ,
दरभंगा घाट पर जब पहली बार तुमको देखा
ज़िक्र करूं या न करूँ उलझन में हूँ
वो बेंच जहाँ तुम संग बैठने की तम्मना थी मुझको
उस ख़्वाब को पूर्ण करूँ या न करूं उलझन में हूँ
पान की वो मिठास और लालिमा होंठों की
जो अक़्सर तुम्हारे प्रेम को बतलाती
उस लालिमा संग मुस्कुराऊँ या नहीं उलझन में हूँ
सादगी और उस सादगी पर तुम्हारा खिलखिलाना
उस खिलखिलाहट को क्या नाम दूँ उलझन में हूँ
लस्सी सी तुम भी हो जो अक़्सर
खुद तक खींच लाती हो
उस चुम्बक-सी राह को किस्मत का
आना कहूं या गुलाब की सुगंध, उलझन में हूँ
तुम्हारी तारीफ करते मन थकता नहीं,
क्योंकि ज़ुल्फ़ों को जब तुम समेट जुड़ा बनाती
सच कहूं तो लगता समुन्दर की लहर
सी हो तुम जिससे दूर हो के भी अक़्सर पास
होने को जी चाहता
सच कहूं तो तुम उस रेल की इंजन -सी हो
जिसके संग न होने से मन तन्हा होता,
जो संग रहें हरपल तो ये जहाँ अपना
हर वक़्त होता
उलझन जो थी थम सी गयी, सच
कहूं तो निगाहों में तुम बस भी गयी
अब तो बस मन की रश्मि हो तुम ,
जो नव-ऊर्जा संग मेरे मन में दिया
प्रेम का जलाती
पत्र लिखूँ या न लिखूँ
नवीन आशा