रेत पर जीवन सवारने की जगी उम्मीद, गंगा किनारे भूमिहीन किसानों की मेहनत ला रही रंग

रेत पर जीवन सवारने की जगी उम्मीद, गंगा किनारे भूमिहीन किसानों की मेहनत ला रही रंग

वाराणसी (रणभेरी):  गंगा के किनारे बसी लहुरी काशी, यानी गाजीपुर, कैथी मार्कण्डेय महादेव मंदिर का  क्षेत्र इन दिनों मेहनत और हौसले की नई कहानी लिख रही है। यहां के भूमिहीन किसान, जो बाढ़ के दिनों में मुश्किलों से जूझते हैं, गर्मियों में गंगा की रेत को सोने में बदल रहे हैं। तपती धूप में ये किसान रेत के टापुओं पर खीरा, ककड़ी और तरबूज की खेती कर रोजाना हजारों रुपये कमा रहे हैं। यह कोई साधारण खेती नहीं, बल्कि संघर्ष, समर्पण और सामूहिक मेहनत का जीवंत चित्र है।

सैदपुर से कैथी, बक्सर तक फैली गंगा की रेतीली जमीन पर हर भोर एक नया नजारा उभरता है। सुबह चार बजे से छह बजे तक ददरी घाट पर गंगा की शांत लहरों के बीच किसानों की जद्दोजहद देखते ही बनती है। महिलाएं, बुजुर्ग और बच्चे, सिर पर टोकरी लिए, ककड़ी और सब्जियां तोड़कर नावों से घाट की सीढ़ियां चढ़ते हैं। यह मेहनत का वह मंजर है, जो हर किसी के हौसले को सलाम करने पर मजबूर कर देता है। संकट मोचन मंदिर के पीछे हर दिन एक अस्थायी मंडी सजती है, जहां शहर के व्यापारी थोक में इन ताजा सब्जियां खरीदने पहुंचते हैं। यह सिलसिला अप्रैल से जून तक चलता है, जो इन किसानों के लिए आर्थिक मजबूती और आत्मसम्मान का आधार बनता है। 

किसान बृजेन्द्र यादव की कहानी इस मेहनत का जीता-जागता उदाहरण है। उन्होंने 25 हजार रुपये की लागत से नाशपाती, खीरा और ककड़ी की खेती शुरू की। रेत में गड्ढा खोदकर गंगा के रिसते पानी से पौधों को सींचते हैं। भोर में तीन बजे से ककड़ी तोड़कर छह बजे तक बेचने का उनका रूटीन न केवल उनकी मेहनत, बल्कि उनके जज्बे को भी दर्शाता है। बृजेन्द्र बताते हैं, “यह काम गाजीपुर से जमानिया तक के लोग करते हैं। रेत हमारा खेत है, और मेहनत हमारा हथियार।” वहीं, किसान रामेंद्र ने एक बीघा रेत पर खेती के लिए 30 हजार रुपये लगाए। उनके परिवार के लोग इस काम में जुटे हैं। वे बताते हैं, “पहले रेत में गड्ढा खोदकर बीज बोते हैं, फिर खाद डालते हैं। कुआं-सा गड्ढा बनाकर उसमें से डब्बे से पानी निकालकर पौधों को सींचते हैं। एक ककड़ी दो रुपये में बिकती है, और यही हमारी कमाई है।”

इस खेती में महिलाओं की भूमिका भी कम नहीं। वे न केवल खेतों में मेहनत करती हैं, बल्कि पुरुषों के लिए खाना-नाश्ता तैयार करती हैं। रेत के किनारे छोटी-सी झोपड़ी बनाकर ये किसान अपनी फसल की रखवाली करते हैं और यहीं रहते हैं। यह उनकी मेहनत, हौसले और सामूहिकता की कहानी है, जो गंगा की रेत पर हर दिन नई उम्मीद बो रही है।

लहुरी काशी की यह रेतीली खेती न केवल इन किसानों को मालामाल कर रही है, बल्कि यह साबित कर रही है कि मेहनत और हिम्मत के सामने कोई मुश्किल बड़ी नहीं। गंगा के किनारे उग रही यह फसल सिर्फ सब्जियां नहीं, बल्कि आत्मविश्वास और सम्मान की फसल है, जिसे देख हर कोई इन अन्नदाताओं को सलाम करता है।