शिक्षक, कभी साधारण नहीं होता...
वाराणसी (रणभेरी सं.)। शिक्षक कभी साधारण नहीं होता... प्रलय और उत्पत्ति, दोनों ही उसकी गोद में पलते हैं। लेकिन क्या, अब ऐसे शिक्षक हैं , शिक्षक सच में असाधारण होता है। लेकिन पहले उसे बनना होता है , स्वयं ऐसा, क्योंकि वास्तविक शिक्षक सिखाता है अपने आचरण से... लेकिन क्या अब है ऐसा? गुलामी की मानसिकता देती इस शिक्षण व्यवस्था में। शिक्षक भी किसी गुलाम से कम नहीं है। जो पढ़ाता तो है, पर क्या और कैसे इस ओर ध्यान नहीं है किसी का। शिक्षण जैसे महानतम कर्म बन गया है वेतन हेतु।
अनैच्छिक- एच्छिक कर्म, गिरते शैक्षणिक स्तर के लिये क्या वह वास्तव में दोषी है दोषी है तो इसके लिये सम्पूर्ण तंत्र और स्वयं समाज भी। तंत्र इसलिए क्योंकि इस तंत्र में शिक्षक मात्र एक यंत्र है। सबके हाथों का अधिकार शून्य- किन्तु लिए अनन्त उत्तरदायित्व। एक बच्चे के भविष्य बनाने का भारत था विश्वगुरू, क्योंकि तब थे हमारे शिक्षक सर्वश्रेष्ठ संपूर्ण विश्व में। समाज में था शिक्षक का सर्वोच्च स्थान। लेकिन अब, समाज के केन्द्र में शिक्षक कहीं है ही नहीं। एक शिक्षक जो गढ़ता है... एक सिपाही से लेकर सत्ताधीश तक, लेकिन उसका स्वयं का क्या है स्थान ये सिर्फ़ एक शिक्षक का हृदय ही जानता है।
किसी भी समस्या का अंतिम और सर्वश्रेष्ठ समाधान है उत्तम और सम्पूर्ण शिक्षा, लेकिन ऐसी शिक्षा देगा कौन? उदर- पूर्ति के लिये संघर्ष करता निरीह शिक्षक ? शोषण का उत्तम साधन बन सम्मान के नाम पर शून्य शिक्षक ! अपेक्षायें तो अनन्त हैं शिक्षक से, लेकिन सुविधायें सम्मान- शून्य। और फिर अंतत:फोड़ दिया जाता है बदहाल और गिरते शिक्षा के स्तर का ठीकरा प्रतिकारहीन शिक्षक के सिर पर। उसके होते शैक्षिक और नैतिक पतन को ठहरा दिया जाता है जिम्मेदार। लेकिन सच में, दोषी कौन है? विचारिये! अंकों की अंधी दौड़ में शामिल करा दिया जाता है, शिक्षक को भी। जहाँ सारा जोर, काबिल बनाने से ज्यादा अंक लुटाने पर है
पूरे शिक्षा तंत्र में शिक्षक और विद्यार्थी दोनों हाशिये पर है। असल बागडोर तो शिक्षा के नाम पर लूटने वालों के हाथों में है। समाज को गढ़ने वाला शिक्षक आज उसी समाज में है सबसे उपेक्षित। यदि हम चाहते हैं सच में भारत को विश्व-गुरू बनाना, तो तैयार करने होंगे विश्व स्तरीय गुरू। जो ना केवल भंड़ार हों ज्ञान के, बल्कि हों ओत- प्रोत भारतीयता से, सुसंस्कारों से, श्रेष्ठ नैतिक आचरण से। तो देना होगा, समाज को भी उन्हें सर्वोच्च स्थान और सम्मान। अन्यथा भारत को विश्व- गुरू बनाने का ये विचार और संकल्प बना रह जायेगा मात्र एक आदर्श, किंतु आभासी स्वप्न।
राहुल सावर्ण