काव्य-रचना
बाप
तरक़्क़ी के शोर में सन्नाटे की जो आवाज है
खुली क़िताब होकर भी जो बन्द एक राज है
वह मजबूत कल है और आज में भी आज है
वह शख़्सियत है शक़्ल से बस थोड़ा नाराज है
छाए के ऊपर छत वह जिसपर गर्म गाज है
तुम नालायक सही जिसको तुमपर नाज है
तुम पर्दे में हो लेकिन वही तुम्हारा लाज है
वो बाप है तुम्हारे हस्ती का शहनवाज है
जो चुका न सको जीवन में वह वो ब्याज है
तुम नायक हो तो वह हथियारों का साज है
दुनिया अगर जख्म तो वह उसका इलाज है
हाँ वही, वही जो तुम्हारे मुक़द्दर का ताज है।
- प्रवीण वशिष्ठ