काव्य-रचना

काव्य-रचना

  मज़दूर का हाथ खंजर क्यूँ नहीं होता ?  

मज़दूर का हाथ खंजर क्यूँ नहीं होता ?
खाली है अब भी हमारे पीठ पर 
तरकश क्यूँ नहीं होता ?
यूं आना जान है बस हमारे पास 
अवसर क्यूँ नहीं होता ?

सदियों से पिया दर्द का समन्दर 
अब भी पी रहा 
यै मुत्मइन तेरे सीने में 
हलचल क्यूँ नहीं होता ?

ऊँचे महलों ये दौलतों कि दुनियाँ 
रचा तेरे हाथों ने 
झुके इनकी हस्ती तेरे कदमों में 
वो हौसले क्यूँ नहीं होता ?

चीर दे जुर्मो, जबर का 
आज तू सीना 
मिटे ये ज़ालिम हुक्मरान 
वो मंज़र क्यूँ नहीं होता ?

धार कब से लग रही 
जो अभी आयी नहीं 
आखिर ये मज़दूर का हाथ 
 खंजर क्यूँ नहीं होता ?

              सुनील कुमार  “खंजर”