काव्य-रचना
अकेली है ये ज़िन्दगी
आज तनहा अकेली है ये ज़िन्दगी
जैसे उलझी पहेली है ये ज़िन्दगी
हारती भी है ये , जीतती भी है ये
खेल छिप-छिप के खेली है ये ज़िन्दगी
रोज़ लगती नयी , अनछुई देखिए
जैसे दुल्हन नवेली है ये ज़िन्दगी
कब ख़ुशी में रही और कब ग़म में ये
हँस के ही जान ले ली है ये ज़िन्दगी
कब फिसल जाती मानिंद ये रेत के
वक़्त की ही हथेली है ये ज़िन्दगी
नाते - रिश्ते ये झूटे व बेकार हैं
मौत की ही सहेली है ये ज़िन्दगी
ये हँसाती हमें , ये रुलाती हमें
सुख व दुख की हवेली है यह ज़िन्दगी
लोग कहते हैं 'शाफ़ी' इसे मान लें
इक महकती चमेली है ये ज़िन्दगी
शाफ़िया हसन 'शाफ़ी'