काव्य-रचना
काशी देख ले
नई संस्कृति की जवानी देख ले
बसी खुद में खामोशी की कहानी देख ले
कितनी आँखें हो गई चेरापूंजी
तपती बदन वो रेगिस्तानी देख ले
होता नहीं सुबह-ए-बनारस जहां
जा कर वो वीरानी देख ले
जलाई ज्ञान की दीप जहां शाक्य मुनि
वो विद्या की राजधानी देख ले
गूंजती है आज भी यहाँ हर घाट पे
सूर, तुलसी, रैदास की बानी देख ले
लड़ना है जहाँ से तो भय न खा
तीखी कबीर की जुबानी देख ले
हिमालय से निकली भर हुंकार
लहरते गंगा की रवानी देख ले
सदियों झेली हर दुश्मनों की वार
जिसकी मिटी नहीं काभी हस्ती
वो पवित्रता की पानी देख ले
सिमटा है जिसमें कई युगों का इतिहास
वही संस्कृति आज भी
कभी मौका मिले तो आ कर काशी देख ले ।
सुनील कुमार ‘खंजर’