काव्य-रचना

काव्य-रचना

   बहुत   

हम करते आए थे, जिसका भला
जख्म दिए जब उसने, हमको खला बहुत।

है न गीला, अब गैर से उसे है समझ लिया
वरना मायूसी में मन था ढला बहुत।

साजिश में शामिल था, अपना अजीज ही
अच्छा है उससे, अब फासला बहुत।

बुद्धि अधिक न जरूरी, यदि सच कहना हो
झूठी बात बताने में है कला बहुत।

तोड़ा चाहने वालों ने ही सदा उसे
काटों में जो फूल सुरक्षित पला बहुत।।

थे मौजूद सबूत, गवाही पक्की, पर
न्यायालय की तारीखों ने छला बहुत।।

बात जरा सी थी "रिषभ" भड़क उठा
वो पहले से ही बैठा था जला बहुत।।

रिषभ श्रीवास्तव