काव्य-रचना
ऋतुराज
कुछ यूं उतरतेंहैं कागजों पे
आज कल जज़्बात मेरे
ये वक्त नशे में है
या कलम पी रखी है ।
ज़ेहन भी मचल रहा है
ये कौन सा महीना है?
गााँव, हरे-भरे मैदान
वो फ लों के गूंध
कुछ झम ती फसलों की
बाललयााँ खेतों में ।
हर आाँखों में अलसाई हुई अधर ीनींद
इक़ मसुलसल नींद के ज़ेद्दों ज़हद में
मैं ह , ाँ तमु हो, कौन नहीं है?
कहीं ये ऋतरुाज तो नहीं ?
सनुील कुमार “खूंजर”