काव्य-रचना
ठंड बहुत है इन दिनों
ठंड बहुत है इन दिनों
सुनो ना...
तुम कुल्हड़ की चाय बन जाओ ना,
मेरे जेहन में उतर कर गर्माहट बरसाओ ना।
सुनो ना...
ये कोहरे की फुहारों की
छोटी -छोटी बूंदे,
मेरे शरीर की रूह को कंप - कंपा रही हैं।
तुम पशमीना साल के उल्झी धागों जैसी,
इन बूंदों को को उल्झाओ ना।
सुनो ना...
कोहरे सी धुंधली हो गई है मेरी जिंदगी,
तुम प्यार का प्रकाश करके
मुझे रास्ता दिखाओ ना।
सुनो ना...
यह ठंडी-ठंडी हवाएं
हाड़ कंपा रही हैं,
तुम हिमालय की तरह
पर्वत बन जाओ ना।
सुनो ना...
मैं कमरे में कैद "प्रशांत" बन गया हूं,
तुम समाजशास्त्र की पुस्तक की तरह
मेरे दिल में शमाओं ना।
प्रशांत कुमार प्रजापति