काव्य-रचना
सुनी सड़के खौलती चाय
सुनी सड़के खौलती चाय ,
मैं उसपे जज्बात को रखता हूं
एक दफा सुन लो मैं तुमसे कुछ कहता हूं
आजादी मिली नही युही
खौलते रक्क्त से नहला के मांगी गई थी
चढ़ के दुश्मन के छाती पर ,
लगाम इस मुल्क की थामी गई थी ..
चाय के अड़ी ही उस दौर में क्रांति के अखबार होते थे ,
मरना मिटना ही
उस दौर के प्रमुख व्यापार होते थे
जज्बात को गर्म करने को केतली से
इठलाती चाय जब प्याले में गिरती थी
रग रग में स्फूर्ति सा उमंग भर
जय हिंद का उद्घोष करती थी
महज एक कुल्हड़ में भरा
यह एक अनल पेय नही है
महज करना जुबान को गर्म
इस सवालिया का ध्येय नही है
अरे ये तो भावनाओ के उमड़ते
जज्बात का अधिकारी है ...
तुम लाख बुरा कह लेना हमे मान्य है ,
लेकिन कहूँगा बार बार की चाय भी एक क्रांतिकारी है।।