जला कुम्भकारों की उम्मीदों का दीप, चाक रफ्तार में

जला कुम्भकारों की उम्मीदों का दीप, चाक रफ्तार में

वाराणसी (रणभेरी सं.)। दीपावली पर धन लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए मिट्टी के दीपक बनाने वाले कुम्हारों के चाक ने गति पकड़ ली है। भारत देश में कोई भी त्यौहार बिना चाक पर तैयार किए गए बर्तन के नहीं मनाया जाता। कुम्हारों के हाथ जब चाक पर थिरकने लगते हैं तो मिट्टी कई आकर्षक आकारों में दीपक, गणेश प्रतिमा, लक्ष्मी प्रतिमा से लेकर करवे और कई बेहतरीन सामान स्वरूप में आ जाती है। कुम्हारों के पसीने से आकार ले रहे दीपक दीपावली पर कई घरों को रोशन करने के लिए अभी से ही गावों के हर कोने में बिकने शुरू हो चुके हैं। इन दिनों विभिन्न साइज के दीपक गढ़ने में कुम्हार जुटे हुए है। कुम्हारों का कहना है कि बदलते परिवेश में मिट्टी के दीपों का स्थान इलेक्ट्रिक झालरों ने भले ही ले लिया हो, लेकिन इसके बावजूद मिट्टी के दीपक का अपना अलग ही महत्व है। चाइनीज इलेक्ट्रिक झालरों के बढ़ते दौर में भी त्यौहारों पर मिट्टी से बने दीपक और अन्य चीजों का क्रेज बना हुआ है। मिट्टी के दीपक को बनाने से लेकर पकाने तक में आने वाला खर्च बढ़ गया है, जिससे उन्हें मेहनत के हिसाब से आर्थिक लाभ नहीं हो पा रहा रहा है। करीब 10 हजार रुपए में आने वाला चाक का पहिया पत्थर के कारीगरों की ओर से तैयार किया जाता है। इस पर सारे मिट्टी के बर्तन बनाए जाते है। दीपावली के कारण ही उनका यह पुश्तैनी धंधा अब तक जीवित है। कुंभकार परिवार मिट्टी का सामान तैयार करने में व्यस्त है। कोई मिट्टी गूंथने में लगा है तो किसी के हाथ चाक पर मिट्टी के बर्तनों को आकार दे रहे हैं। महिलाओं को आवा जलाने व पके हुए बर्तनों को व्यवस्थित रखने का जिम्मा सौंपा गया है। इसके साथ ही महिलाएं रंग बिरंगे रंगों से बर्तनों को सजाने में जुटी है।  दीपक, घड़ा, मलिया, करवा, गमला, गुल्लक, गगरी, मटकी, नाद, देवी-देवता, कनारी, बच्चों की चक्की सहित अन्य उपकरण बनाए जाते हैं। कुम्हारों ने बताया कि चाक का पानी व मिट्टी औषधि का काम करती है। मिट्टी गढ़कर उसे आकार देने वालों पर शायद धन लक्ष्मी मेहरबान नहीं है, इसके चलते अनेक परिवार अपने परंपरागत धंधे से विमुख होते जा रहे हैं।
दीपावली पर मिट्टी का सामान तैयार करना उनके लिए सीजनल धंधा बनकर रह गया है। हालात यह है कि यदि वे दूसरा धंधा नहीं करेंगे तो दो जून की रोटी जुटा पाना कठिन हो जाएगा। कुम्हारों का कहना है कि दीपावली व गर्मी के सीजन में मिट्टी से निर्मित बर्तनों की मांग जरूर बढ़ जाती है, लेकिन बाद के दिनों में वे मजदूरी करके ही परिवार का पेट पालते हैं। इस त्योहारी सीजन में हाथों से चाक पर मिट्टी को आकृति देने वाले कुंभकार मिट्टी नहीं मिलने से निराश हैं। मिट्टी की कमी इन्हें इस कदर खल रही है कि मिट्टी के बर्तन, मूर्तियां, दीपक बनाना मुश्किल हो रहा है। ऐसे में मिट्टी को आकृति देकर परिवार का लालन-पालन करने वाले कुम्भकारों को त्योहार फीका नजर आ रहा है। इससे लगता है जैसे इनकी कला भविष्य में मिट्टी के अभाव में गुम हो जाएगी।

इस समस्या को लेकर कुम्भकारों ने कई बार मिट्टी उपलब्ध कराने की मांग की है, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। इसलिए अब ये अन्य रोजगारों का विकल्प भी ढूंढने लगे हैं। इन्हें दूसरों के घरों को दीपक से रोशन करने के साथ मिट्टी की मूर्तियां बनाकर बेचने की चिंता सता रही है। वहीं स्वयं के घरों में दीपावली कैसे मनेगी यह चिंता भी सता रही है। इतिहास गवाह है कि समय कैसा भी रहा हो, लेकिन कुम्भकारों का योगदान हमेशा रहा है। हर घर में इनकी दस्तक होती थी, लेकिन समय बदला तो मिट्टी की कमी के साथ सामग्री के अभाव में लोगों का मिजाज बदल गया। 

हालांकि त्योहारी सीजन शुरू हो चुका है। लेकिन इनके सामने अपनी कला को जिंदा रखने के लिए मिट्टी की समस्या बरकरार है। कुंभकारों का कहना है कि चिकनी मिट्टी का अभाव है। इस कारण मिट्टी महंगे दामों पर खरीदनी पड़ती है। नहीं मिल रहे उचित दाममिट्टी का सामान तैयार करने में ज्यादा लागत आती है और बाजार में उतना दाम नहीं मिल पाता। इस स्थिति को देखता समाज का युवा वर्ग भी पुश्तैनी कार्य से परहेज करने लगा है। क्योंकि, लोग अब मिट्टी के बर्तनों के उपयोग के स्थान पर प्लास्टिक के दौने-पत्तल और स्टील आदि के बर्तनों का इस्तेमाल करते हैं। 
भीटी के 50 में से सिर्फ 15 परिवार बचे लोहता के भीटी इलाके में पहले करीब 50 परिवार मिटटी के सामान बनाते थे। सरस्वती प्रजापति ने बताया- सड़क बनने के बाद कई मकान टूट गए और कई के पास जगह खत्म हो गए। ऐसे में कई परिवारों ने इस पुश्तैनी कार्य से पलायन कर लिया। 
अब महज 15 घर बचे हैं। जो इस कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं। इस इलाके में साल भर नाद और गमले बनाए जाते हैं। इसी का कारोबार है लेकिन दीपावली और देव दीपावली पर दीये बनाए जाते हैं।