काव्य-रचना
जब-जब संघर्षों का मटका भरके फूटा है
जब-जब संघर्षों का मटका भरके फूटा है
मेहनत के छिटके ताउम्र नहीं छूटा है।
आज संघर्षों में जो मज़ाक उड़ाते हैं,
दुःख-दर्द में जो हँसकर नज़र न आते हैं।
एक मटका उनके लिए भी सींचा हूँ,
ख़ुद बैल बनकर उस मोटरी को खींचा हूँ।
यातना के रण से निकला, हूँ अब तैयार मैं,
विष, कटुता और ताने का था नहीं हक़दार मैं।
निकल सूरज अब अपना तेज़ दिखाऊँगा
अपने उन्हीं शत्रुओं के पूतों को मैं पढाऊँगा।
जो थे खिन्न-अनजान, वो भी अब अपने होंगे,
सबसे ख़ुश माँ होगी, पूरे उसके सपने होंगे।
पिता के आँसू न थम पाएँगे, उनकी आँखें जम जाएँगे
जो न हुआ कभी वो अब होगा,
पिता के कलेजे पे मेरा गौरव होगा।
- कृष्णा कांत पाण्डेय