काव्य -रचना
महुआ
मीठे रस से भरा हुआ
गुच्छों में लटकता महुआ,
कितना सुन्दर, कितना प्यारा,
नयनों को खूब लुभाता है ।
टप टप करता महुआ गिरता
धरती पर बिखरता रहता,
अपनी अनुपम छटा बिखेरता,
बहुत ही प्यारा लगता है ।
पीढ़ियों से यह चलता आया
पूर्वजों जैसा नाता है,
दादी माँ का बहुत दुलारा
पूरा सम्मान यह पाता है ।
पकवानों में भी महत्व है इसका
स्वादिष्ट व्यंजन सबको भाता,
कभी रसोई का भाग रहा यह,
पर अब वह स्थान नही पाता है ।
महुआ की अपनी है शान निराली,
बहुतेरे प्रयोगों में आता है,
भट्टी पर जब इसे तपाया जाता
दारू के रूप में बिकता है ।
प्रकृति की सब देन है प्यारे,
छेड़खानी न प्रकृति से करिये,
मानव के लिये वरदान हैं ये वृक्ष,
हर मौसम में फल देता है ।
विवेक पाण्डेय