काव्य -रचना

काव्य -रचना

      संगमरमर       

जहाँ ठहरा हो जीव अर्पण
जीवित,संगम की आश में,
नभ में हो ज्यों करताल हठ,
नम्र भींगी वैशाख में!

सोंख सुरुखकर शोक सिमट कर
ढोलक फटी,धूंध छंटी,
निहित जो संगमरमर की स्वांग थी,
हार पर भी जीत की आह्वान,
पूनींद्र की यह पहचान थीं!

रिश्वत के रिस्तों का गुणा,
पिरोंए पनपती महाकाल सी,
विषपान से भी ना डरी,
एक ऐसी पहचान थीं। 


               अविक चौबे गोल्डी