काव्य-रचना
भाग ही तो रही हूं मैं
भाग ही तो रही हूं मैं
अब कैसे बताऊँ
कभी अनचाही उम्मीदों से भागती हूं
तो कभी अपनी ही तकदीरो से भागती हूं,
कभी तकरार से भागती हूं तो कभी प्यार से भागती हूं,
और कभी सदियों के इंतज़ार से भागती हूं,
हां भाग ही तो रही हूं मैं
अब क्या बताऊँ,
कभी सपनों के पीछे भागती हूं
तो कभी जज्बातों से आगे भागती हूं,
कभी उस ख्याल से भागती हूं
तो कभी अपने ही सवाल से भागती हूं,
हां भाग ही तो रही हूं मैं
अब क्या बताऊँ,
कभी नज़रों के टकराव से भागती हूं
तो कभी उन बोझिल अधरों के भाव से भागती हूं,
कभी हथेलियों के एहसास से भागती हूं
तो कभी अपने ही जवाब से भागती हूं,
हां भाग ही तो रही हूं मैं
अब क्या बताऊँ,
कभी रिश्तों के अंजाम से भागती हूं तो
कभी उस दर्द के मुकाम से भागती हूं,
कभी जमाने की चाल से भागती हूं तो
कभी अपने ही पहचान से भागती हूं,
हां भाग ही तो रही हूं मैं
अब कैसे बताऊँ।
मधु पद्म