इसरो ने की आरएलवी 'पुष्पक' की लगातार तीसरी सफल लैंडिंग

इसरो ने की आरएलवी 'पुष्पक' की लगातार तीसरी सफल लैंडिंग

नई दिल्ली । भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने रविवार को सुबह लॉन्च व्हीकल ‘पुष्पक’ का तीसरी बार पूरी तरह कामयाब परीक्षण किया। पुष्पक को भारतीय वायु सेना के चिनूक हेलीकॉप्टर से 4.5 किमी. की ऊंचाई से हवा में छोड़ा गया। कर्नाटक के चित्रदुर्ग स्थित एयरोनॉटिकल टेस्ट रेंज (एटीआर) में इस रीयूजेबल लॉन्च व्हीकल ने खुद ही आधा घंटे बाद जमीन पर लैंड किया। आज के आखिरी परीक्षण में इसरो के 'पुष्पक' शटल ने साबित कर दिया कि यह बार-बार अंतरिक्ष में जाकर धरती पर सुरक्षित लौट सकता है।

इसरो ने इससे पहले पिछले साल 02 अप्रैल को आरएलवी लेक्स-1 का सफलतापूर्वक संचालन किया था। इसके बाद इसी साल 22 मार्च को आरएलवी लेक्स-2 का सफल परीक्षण किया गया था। इसी शृंखला में तीसरा और अंतिम परीक्षण कर्नाटक के चित्रदुर्ग में वैमानिकी परीक्षण रेंज (एटीआर) में आज सुबह 07:10 बजे किया गया। आरएलवी लेक्स-01 और लेक्स-02 मिशनों की सफलता के बाद आरएलवी लेक्स-03 ने अधिक चुनौतीपूर्ण रिलीज स्थितियों में और अधिक गंभीर हवा की स्थिति में आरएलवी की स्वायत्त लैंडिंग क्षमता का फिर से प्रदर्शन किया।

इसरो के मुताबिक ‘पुष्पक’ नामक पंख वाले वाहन को भारतीय वायु सेना के चिनूक हेलीकॉप्टर से 4.5 किमी. की ऊंचाई पर छोड़ा गया। रीयूजेबल लॉन्च व्हीकल धीमी गति से उड़ान भरने के बाद रनवे से 4.5 किमी दूर स्वायत्त रूप से क्रॉस-रेंज सुधार युद्धाभ्यास करने के बाद रनवे के पास पहुंचा और सेंटर लाइन पर लैंडिंग गियर के साथ खुद ही एटीआर में 7.40 बजे लैंड किया। लैंडिंग करते वक्त इसका वेग 320 किमी प्रति घंटे से अधिक हो गया, जबकि एक वाणिज्यिक विमान के लिए यह 260 किमी प्रति घंटे और एक सामान्य लड़ाकू विमान के लिए 280 किमी प्रति घंटे होता है। टचडाउन के बाद वाहन के वेग को उसके ब्रेक पैराशूट का उपयोग करके लगभग 100 किमी प्रति घंटे तक कम कर दिया गया था।

लगातार तीसरी बार यह परीक्षण सफल होने के बाद साबित हो गया कि रीयूजेबल लॉन्च व्हीकल के सहारे रॉकेट को दोबारा लॉन्च किया जा सकता है। इस परीक्षण में इसरो के साथ भारतीय वायु सेना, वैमानिकी विकास प्रतिष्ठान (एडीई), हवाई वितरण अनुसंधान और विकास प्रतिष्ठान (एडीआरडीई), सैन्य उड़ान योग्यता और प्रमाणन केंद्र (सीईएमआईएलएसी) के तहत क्षेत्रीय सैन्य उड़ान योग्यता केंद्र (आरसीएमए), राष्ट्रीय एयरोस्पेस प्रयोगशालाएं (एनएएल), भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर, भारतीय एयरोस्पेस औद्योगिक साझेदार, इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया और भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण से महत्वपूर्ण समर्थन के साथ कई इसरो केंद्र शामिल थे।

इसरो बीते कुछ सालों में लगातार एक के बाद एक कामयाबी की इबारत लिख रहा है। इस तीसरे मिशन के साथ इसरो ने अंतरिक्ष में लौटने वाले वाहन की उच्च गति स्वायत्त लैंडिंग करने के लिए स्वदेशी रूप से विकसित प्रौद्योगिकियों को फिर से मान्य किया है। आरएलवी लेक्स-1 में उपयोग किए गए वाहन को उचित मंजूरी के बाद आरएलवी लेक्स-2 मिशन में पुन: उपयोग किया गया था। इसलिए इस तीसरे मिशन में उड़ान हार्डवेयर और उड़ान प्रणालियों की पुन: उपयोग क्षमता का भी प्रदर्शन किया गया है। आरएलवी लेक्स-1 और लेक्स-2 के अवलोकनों के आधार पर उच्च लैंडिंग भार को सहन करने के लिए इस बार एयरफ्रेम संरचना और लैंडिंग गियर को मजबूत किया गया था।

इसरो प्रमुख एस. सोमनाथ ने ऐसे जटिल मिशनों में सफलता की लय बनाए रखने के उनके प्रयासों के लिए टीम को बधाई दी। वीएसएससी के निदेशक डॉ. एस उन्नीकृष्णन नायर ने इस बात पर जोर दिया कि यह लगातार सफलता भविष्य के कक्षीय पुनः प्रवेश मिशनों के लिए आवश्यक महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों में इसरो के आत्मविश्वास को बढ़ाती है। जे मुथुपंडियन इस सफल मिशन के मिशन निदेशक हैं और श्री बी कार्तिक वाहन निदेशक हैं।

इसरो प्रमुख ने कहा कि आने वाले दिनों में इसरो अधिक से अधिक अनुसंधान और उसके डेवलपमेंट पर ध्यान देकर अंतरिक्ष के क्षेत्र में बड़ा कामयाबी हासिल करेगा। यह एक स्वदेशी स्पेस शटल है, जिसे ऑर्बिटल री-एंट्री व्हीकल (ओआरवी) के नाम से भी जाना जाता है। आज का परीक्षण सफल होने के बाद भारत अंतरिक्ष में ना सिर्फ सैटेलाइट लॉन्च कर सकेगा, बल्कि भारत की आसमानी सुरक्षा और मजबूत होगी। ऐसी ही टेक्नोलॉजी का फायदा चीन, अमेरिका और रूस भी लेना चाहते है, क्योंकि ऐसे यानों की मदद से किसी भी दुश्मन के सैटेलाइट्स को उड़ाया जा सकता है।

इतना ही नहीं, इन विमानों से डायरेक्टेड एनर्जी वेपन भी चलाया जा सकता है, जिससे दुश्मन की संचार तकनीक को ऊर्जा की किरण भेजकर खत्म किया जा सके। भारत इसी यान की मदद से अपने दुश्मन के इलाके में किसी कंप्यूटर सिस्टम को नष्ट करने या बिजली ग्रिड उड़ाने में सक्षम हो सकता है। इसरो इस प्रोजेक्ट को 2030 तक पूरा करने की तैयारी में है, ताकि बार-बार रॉकेट बनाने का खर्च बच सके। ये सैटेलाइट को अंतरिक्ष में छोड़कर वापस लौट आएगा, जिससे स्पेस मिशन की लागत 10 गुना कम हो जाएगी।