अपना पाप छिपाने के लिए एसोसिएट इंजीनियर को बना दिया बलि का बकरा !

- आउटसोर्सिंग पर रखे गये कर्मचारियों को भ्रष्टाचारी अफसर बनाते हैं अपना ढाल
- जोनल शिवाजी मिश्रा के काले कारनामों की सजा एसोसिएट इंजीनियर को क्यों ?
- हाल में ही मिली थी नौकरी, अगले हफ़्ते तय हुआ विवाह
वाराणसी (रणभेरी/विशेष सं.)। "...तो अपना पाप छुपाने के लिए एसोसिएट इंजीनियर को बनाया गया बलि का बकरा !"....यह कोई मुहावरा नहीं बल्कि वाराणसी विकास प्राधिकरण के अंदर पसरे उस सड़ांध की गवाही है, जिसमें भ्रष्टाचार की गंदगी ऊपर से नीचे तक रिसती है। लेकिन जब बात जवाबदेही की आती है, तो बलि दी जाती है उस सबसे नीचे के कर्मचारी की, जो न सैलरी से सुरक्षित है, न सिस्टम से। यह मामला विकास प्राधिकरण के जोन-1 शिवपुर वार्ड का है।
राहुल त्रिपाठी, एक होनहार युवक, जिसने हाल ही में अपनी जिंदगी की पहली नौकरी पकड़ी थी, वो भी आउटसोर्सिंग के ज़रिए। उसके सपनों में रंग था, जल्द होने वाली शादी की तैयारियाँ थी, परिवार की उम्मीदें थीं। लेकिन, एक ऐसे सिस्टम में, जहां जिम्मेदारी की परिभाषा 'बचाने की कला' से तय होती है, वहाँ राहुल जैसे युवक महज 'त्यागपत्र' नहीं, बल्कि 'त्याग की मूर्ति' बना दिए जाते हैं वो भी बिना गलती के, बिना सही जांच के। आरोप लगाया गया कि राहुल त्रिपाठी ने एक भवन स्वामी से 95,000 हजार रुपए अवैध निर्माण की अनुमति देने के लिए ले लिए। इसके बाद भवन स्वामी को नोटिस मिलने पर उसने शिकायत दर्ज कराई, और कार्रवाई के नाम पर सीधे राहुल की सेवा समाप्त कर दी गई। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या वास्तव में राहुल ही इस अवैध निर्माण की डील का मास्टरमाइंड था ? या उसे मोहरा बनाकर पर्दे के पीछे के असली चेहरों को बचा लिया गया ? अब विभागीय सूत्र बता रहे हैं कि लेन-देन की इस पूरी कहानी के असल डायरेक्टर जोनल अधिकारी शिवाजी मिश्रा ही हैं इस पूरे मामले में उनकी भूमिका ज्यादा संदिग्ध है। राहुल की तैनाती, उसका कार्यक्षेत्र, और जिस प्रकार से वह शिवाजी मिश्रा के कहने पर काम कर रहा था, वह इस बात का संकेत देता है कि आदेश ऊपर से दिए जा रहे थे। जबकि खुद शिवाजी मिश्रा अभी प्रोबेशन पीरियड में हैं। उनके खुद के ऊपर जवाबदेही तय नहीं हो सकी है, लेकिन एक आउटसोर्सिंग कर्मचारी पर सीधे गाज गिरा देना बहुत आसान हो गया। यह पहला मामला नहीं है, जब वीसी स्तर के अधिकारी जैसे पुलकित गर्ग ने बिना गहराई से जांच किए, सीधे एक जूनियर पर कार्रवाई कर दी हो। और यह भी पहली बार नहीं है जब आउटसोर्सिंग मॉडल को 'ढाल' की तरह इस्तेमाल किया गया हो। एक ऐसा मॉडल जिसमें अधिकार तो दिए जाते हैं, पर सुरक्षा नहीं। सूत्रों ने बताया कि भवन स्वामी विनोद कुमार से संपर्क शिवाजी मिश्रा के ज़रिए ही हुआ था। राहुल त्रिपाठी उस पूरी व्यवस्था में केवल संदेशवाहक की भूमिका में था और जब मामला बिगड़ा, तो सारा दोष उसी पर डालकर, मामले को 'फिक्स' कर दिया गया। इस पूरे घटनाक्रम में जो सबसे त्रासदीपूर्ण बात है, वह यह कि राहुल त्रिपाठी की शादी अगले ही हफ्ते तय थी। वह और उसका परिवार इस समय गहरे सदमे में हैं। एक युवा जिसकी जिंदगी शुरू भी नहीं हुई थी, उसे सिस्टम ने कुचल डाला, सिर्फ इसलिए क्योंकि भ्रष्ट अधिकारियों को अपनी गर्दन बचानी थी।
एक एसोसिएट इंजीनियर का सपना जिसे भ्रष्ट सिस्टम ने कुचल दिया
वाराणसी के एक सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार से आने वाले राहुल त्रिपाठी की कहानी किसी भी आम युवा की तरह है। सपनों से भरी, संघर्षों से सजी और उम्मीदों से आगे बढ़ती। इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद जब लंबे समय तक नौकरी नहीं मिली, तो उसने छोटे-मोटे प्रोजेक्ट्स में टेक्निकल असिस्टेंट का काम शुरू किया। घर की आर्थिक स्थिति बहुत बेहतर नहीं थी। घर का जिम्मा भी राहुल पर ही था। राहुल की निजी जिंदगी भी तब एक सुनहरे दौर में प्रवेश कर रही थी। उसकी शादी तय हुई। लड़की के घरवालों ने सोचा कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद वीडीए में नियुक्त एक सरकारी विभाग में इंजीनियर एक अच्छा जीवनसाथी होगा। शादी की तारीख जून के पहले हफ्ते में तय की गई। परिवार के लिए यह एक दोहरी खुशी का मौका था। बेटे की नौकरी और अब उसका घर बसने की शुरुआत।
लेकिन शायद किस्मत को कुछ और मंजूर था। राहुल भ्रष्ट अधिकारियों के कुचक्र में कुचला गया। नौकरी के शुरुआती दो महीनों में ही राहुल को समझ में आ गया कि सरकारी सिस्टम के भीतर काम करना इतना आसान नहीं है। ज़ोनल अधिकारी, सुपरवाइजर्स, क्लर्क, और दूसरे अफसरों के बीच चलने वाली अदृश्य सत्ता की रस्साकशी में एक आउटसोर्सिंग कर्मचारी की हैसियत कुछ भी नहीं होती। काम करने का निर्देश ज़ोनल ऑफिस से आता, लेकिन लिखित में कुछ नहीं दिया जाता। निरीक्षण करने जाना हो या नोटिस तैयार करना हो, सब कुछ वरिष्ठों के इशारे पर ही चलता था।
जोनल शिवाजी मिश्रा के काले कारनामों की सजा एसोसिएट इंजीनियर को क्यों ?
सूत्रों की माने तो शिवाजी मिश्रा, जो कि जोन-1 के नए ज़ोनल अधिकारी बनाए गए थे, राहुल को शुरुआत से ही 'अपने आदमी' की तरह इस्तेमाल करने लगे। शिवाजी खुद अभी प्रोबेशन पीरियड में थे और उन्हें सिस्टम में खुद को स्थापित करना था। इसलिए उन्होंने आसपास ऐसे लोगों को जोड़ा, जो उनके कहे मुताबिक काम करें और कोई सवाल न पूछें। राहुल को कई बार कठवतियां और शिवपुर वार्ड के उन निर्माण स्थलों पर भेजा गया, जो या तो नियम विरुद्ध थे या जहां 'सेटिंग' करके निर्माण चल रहा था। लेकिन उसकी भूमिका सीमित थी। कभी निरीक्षण कर रिपोर्ट बनाना, कभी चुपचाप 'बात' करवाना। कुछ दिन पूर्व राहुल को एक निर्माण स्थल पर भेजा गया शिवपुर वार्ड के कठवतियां इलाके में। यहां विनोद कुमार नाम के एक व्यक्ति ने आवासीय नक्शा पास कराए बिना निर्माण कार्य शुरू किया था। जानकारी मिली कि उसने 'डील' कर ली थी, यानी अधिकारियों को कुछ 'देने' के बाद उसे निर्माण की छूट दे दी गई थी।
राहुल इस प्रक्रिया का सिरा नहीं था, बस एक कड़ी था। बताया गया कि शिवाजी मिश्रा ने खुद यह डील तय कराई थी, और राहुल को आगे भेजा गया कि वह निगरानी बनाए रखे। विनोद कुमार से कथित तौर पर 95,000 हजार वसूले गए। यह दावा खुद भवन स्वामी ने बाद में किया। लेकिन जब निर्माण स्थल पर प्राधिकरण का नोटिस पहुँच गया, तो विनोद कुमार भड़क उठा। उसने शिकायत सीधे वीडीए के उपाध्यक्ष पुलकित गर्ग से कर दी और यहीं से सारा खेल पलट गया।
भ्रष्ट सिस्टम के आगे बलि का बकरा बना राहुल
शिकायत के बाद न जांच हुई, न गवाहों से पूछताछ। पैसे वापस कराने के साथ ही राहुल त्रिपाठी को तत्काल सेवा से मुक्त कर दिया गया। यह आदेश खुद पुलकित गर्ग ने दिया। सवाल उठता है, क्या बिना जांच के सिर्फ एक पक्ष की बात पर किसी की नौकरी समाप्त कर देना सही है ? क्या यह राहुल की गलती थी या उसे इस्तेमाल किया गया ? क्या जोनल शिवाजी मिश्रा दूध के धुले हैं ? सच तो आज न कल बेनकाब होगा ही लेकिन राहुल के परिवार को जब यह खबर मिली, तो पूरा माहौल मायूसी में बदल गया। शादी के कार्ड बंट चुके थे, रिश्तेदारों को न्योता दिया जा चुका था। लेकिन अब लड़के के पास नौकरी नहीं थी, और बदनामी का धब्बा भी था।
मैंने क्या गलत किया साहब ?
राहुल ने अपने एक विभागीय मित्र से रो-रो कर कहा था, "मैंने कुछ भी गलत नहीं किया, बस वही किया जो मुझे ऊपर से कहा गया। अगर वे मुझे दोषी मानते हैं, तो फिर आदेश देने वालों पर कार्रवाई क्यों नहीं होती ?" इस एक सवाल में पूरा सिस्टम बेनकाब हो जाता है।
प्रोबेशन में ही भ्रष्टाचार की गंगा बहाने लगे जोनल शिवाजी मिश्रा
वाराणसी विकास प्राधिकरण (वीडीए) के जोन-1 की कमान जिनके पास है, उनका नाम है शिवाजी मिश्रा। एक ऐसा नाम जो पिछले कुछ महीनों में निर्माण से जुड़े विवादों, आरोपों और भ्रष्टाचार के कथित नेटवर्क में बार-बार उभरा है। इस पूरे प्रकरण में सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि शिवाजी मिश्रा अभी तक प्रोबेशन पीरियड में हैं। यानी उनकी सेवा का नियमितीकरण होना बाकी है, फिर भी वह इस तरह से सत्ता और सिस्टम पर नियंत्रण जमाए बैठे हैं, जैसे वर्षों का अनुभव हो। नियमों के अनुसार, प्रोबेशन पीरियड में कोई अधिकारी यदि किसी प्रकार के विवाद में आता है, तो उसके खिलाफ कार्रवाई अधिक सरल होती है। लेकिन वीडीए की आंतरिक राजनीति और संरचना में प्रोबेशन में भी अधिकारी इतने मजबूत कैसे हो जाते हैं, यह सवाल गंभीर है।
वीसी की चुप्पी और वीडीए में पनपता भ्रष्टाचार
जिस समय वाराणसी विकास प्राधिकरण (वीडीए) में अवैध निर्माणों, भ्रष्टाचार, और कर्मचारियों को बलि का बकरा बनाए जाने की कहानियाँ चर्चा में हैं, उस समय एक नाम बार-बार सामने आता है लेकिन जवाब नहीं देते वीडीए के उपाध्यक्ष पुलकित गर्ग। प्रशासनिक सेवा के इस अधिकारी को योगी सरकार ने वाराणसी जैसे संवेदनशील और धार्मिक नगरी में विकास की दिशा तय करने के लिए नियुक्त किया, लेकिन विकास के बजाय प्राधिकरण में व्यवस्था का पतन और जवाबदेही की गहरी कमी देखने को मिल रही है। जब कठवतियां प्रकरण में राहुल त्रिपाठी जैसे आउटसोर्सिंग इंजीनियर पर कार्रवाई की गई, तो पुलकित गर्ग का निर्णय मात्र एक पत्र तक सीमित था जिसमें आउटसोर्सिंग कंपनी को 'सेवा समाप्ति' का आदेश दिया गया। लेकिन इस सवाल पर उन्होंने कभी कुछ नहीं कहा कि जोनल अधिकारी शिवाजी मिश्रा को किसी प्रकार की चेतावनी क्यों नहीं दी गई ? जब पूरे घटनाक्रम की शिकायत वीडीए कार्यालय में आई थी, तब कार्रवाई सिर्फ सबसे कमजोर कड़ी पर क्यों की गई ? इन सभी सवालों पर पुलकित गर्ग का मौन सवालों से भी अधिक बोलता है। पुलकित गर्ग को जब वाराणसी का वीडीए उपाध्यक्ष बनाया गया था, तब उम्मीद की गई थी कि वे ‘ब्यूरोक्रेटिक पारदर्शिता’ लाएंगे, और पुराने समय से चले आ रहे भ्रष्टाचार के ढांचों को तोड़ेंगे। लेकिन हुआ इसके ठीक उल्टा।
पार्ट- 32
रणभेरी के अगले अंक में पढ़िए.....