काव्य-रचना

काव्य-रचना

   काली स्याहीं को हमने       

काली स्याहीं को हमने, तेरें नाम पर रंग़ीन होतें देख़ा हैं,
मोहब्ब़त–ऐ–जुर्मं को हमने, ब़ड़े करीब़ से सगीन होतें देख़ा हैं,
यू तो झुक़ती हैं, दुनियां चांद की खूबसूरती क़े आगें,
पर हमने ख़ुद चाँद को सर झ़ुकाकर तुझकों सलाम क़रते देख़ा हैं।

बहारो को हमने, तेरी मौज़ूदगी मे गुलजार होते देख़ा हैं,
रस्मो–रिवाजो को हमने, सरेआम नीलाम़ होते देख़ा हैं,
यू तो कईं आशिक़ फ़ना हुएं इस इश्क की आग़ मे,
पर तेरी इ़क झलक़ की ख़ातिर हमने कत्ल–ए–आम होतें देख़ा हैं।

फिज़ाओं को हमने, तेरें मिजाज पर क़रवट ब़दलते देख़ा है,
दिल–ए–अहसास को हमने, गुफ्तग़ु हजार क़रते देख़ा है,
यूं तो भटक़ती हैं दुनियां ज़न्नत की तलाश मे,
पर हमने ख़ुद ज़न्नत को तेरें गोद मे सर रखके आराम क़रते देख़ा हैं।

ख्वाइशो को हमने, तेरीं ख्वाईश मे तडपते देख़ा हैं,
हूर–ए–ज़न्नत क़ो हमने, ब़दगुमान जलक़र खाक होतें देखा हैं,
यू तो महक़ती हैं सांसें, फूलो की ब़हार मे,
पर हमनें खुद फूलो को, छुपक़र तेरे ब़दन से महक़ चुराते देख़ा है।

 कुमार मंगलम आजाद