काव्य-रचना
साल आते और जाते हैं
साल आते और जाते हैं
निकल जाते हैं आगे लोग
कोई दौड़ता है
कोई सरपट भागता है
कोई कछुआ तो कोई खरगोश
यहाँ सब कुछ न कुछ बनना चाहते हैं
सिवा इस बात के कोई बात नहीं
कि निकल जाना है आगे
बहुत आगे
छाए छूट जाए अपनी ज़मीन
अपनी दुनिया
मैं गंगा की रेती पर बैठी
रेत के नन्हें कण की तरह मिटने के बाद भी
बचे रहना चाहती हूँ निर्माण की यात्रा में
बस एक कण इतना....
अनुष्का पाण्डेय