काव्य रचना
यूं ही तनहाइयों में बैठकर
यूं ही तनहाइयों में बैठकर,
अपने दिल की अनकही जज्बातों को सोचती हूं,
कभी कुछ यादें तो कभी कुछ अनकही बातों को सोचती हूं,
न जाने क्यू मैं हर रोज सोचा करती हूं,
क्या मैं आज भी वही लड़की हूं जो पहले हुआ करती थी,
बेफिक्र सी,मतवाली सी,वो बावली सी सांवली लड़की,
घर के आंगन में जिसके बदमाशियो कि शोर गूंजा करती थी,
जो पापा की लाडली और मां की सौतन बेटी हुआ करती थी,
जो हर रोज कुछ नया करने की चाह किया करती थी,
जो हर रोज अपनी गलतियों से कुछ नया सीखा करती थी,
नहीं अब तो मैं खुद को कहीं खो चुकी हूं,
अब तो मैं बस अपने आप में खोई रहती हूं,
अब तो जीवन में नाही कोई रहा बची है और नाही कोई चाह,
अब तो बस इस जीवन की भीड़ में मिल जाए मुझे भी कोई किनारा,
थाम कर उसका हाथ गुजर जाए बस यह जीवन सारा।
- आराधना श्रीवास्तव